त्रिविक्रम के १८ वचन (हिन्दी)

दत्तगुरुकृपा से मैं सर्वसमर्थ तत्पर ।
श्रद्धावान को दूँगा सदैव आधार ॥१॥

मैं तुम्हारी सहायता करूँगा निश्‍चित ।
परन्तु मेरे मार्ग त्रि-नाथों को ही है ज्ञात ॥२॥

मत करना इस विषय में संदेह बिलकुल भी ।
न होने दूँगा घात तुम्हारा मैं कभी भी ॥३॥

प्रेमल भक्त के जीवन में ।
नहीं ढूँढ़ने बैठता हूँ पाप मैं ॥४॥

हो जाते ही मेरा एक दृष्टिपात ।
भक्त बन जायेगा पापरहित ॥५॥

मुझपर जिसका पूर्ण विश्‍वास ।
उसकी ग़लतियों को दुरुस्त करूँगा खास ॥६॥

साथ ही, सतायेगा जो मेरे भक्तों को ।
सज़ा अवश्य ही मैं दूँगा उसको ॥७॥ 

मेरे भक्तों का कोई भी प्रारब्ध ।
बदल दूँगा, तोड़ दूँगा या बनाऊँगा बाँध॥ ८॥

न आने देते हुए जगदंबा के नियम को बाध ।
दुख से निकालकर बाहर, मार्ग दिखाऊँगा अगाध ॥९॥

सदैव मैं तुम्हारा उगता देव ।
नहीं ढल जाऊँगा, सौम्य कर दूँगा दैव ॥ १० ॥

पूर्ण श्रद्धा से मानो मन्नत, बहाओ पसीना, करो भक्ति परम ।
प्रसन्न होता हूँ तुम्हारी श्रद्धा से, तुम्हारे लिए मैं सर्वकाल सुखधाम ॥११॥

सभी मार्गों में, मुझे है प्रिय भक्ति ।
जन्म-जीवन-मृत्यु तुम्हारा न व्यर्थ होगा कुछ भी ॥१२॥

शरणागत होकर करेगा जो गजर ।
उसके जीवन में सुख अपरंपार ॥१३॥

मेरी भक्ति करने से, तुम्हें कौन रोकेगा?
कामक्रोध यदि होंगे भरकर, मेरा नाम मेरे भक्त को तारेगा ॥१४॥

प्रेम से जो लेगा मेरा नाम, उसकी सभी कामनाएँ पूरी करूँगा ।
समृद्ध कर दूँगा उसका धाम, शान्ति सन्तोष भर दूँगा ॥१५॥

मेरे चरणों का नि:संदेह ध्यान करने पर ।
सहस्रकोटि संकट भाग जायेंगे डरकर ॥१६॥

सच्चा भक्त रहता है, दो चरणों में मेरे ।
तीसरा कदम मेरा कुचल देगा संकटों को तुम्हारे ॥१७॥

जहाँ पर है भक्ति पूर्ण श्रद्धा और प्रेम ।
वहाँ पर कर्तार मैं त्रिविक्रम ॥ १८ ॥

अभंगलेखक – डॉ. अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी

ll हरि: ॐ ll ll श्रीराम ll ll अंबज्ञ ll
॥ नाथसंविध् ॥

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