समयोग

सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी ने ३० जून २००५ के पितृवचनम् में ‘समयोग’ इस बारे में बताया।

योग जो है, भगवान, उस भगवती शक्ति और भक्त तीनों का एक समवान हिस्से में आना, एक ही ट्रान्ससेक्शन में, एक ही समय, एक ही पल, तीनों आनंद जो होते हैं, उसे योग कहते हैं। भगवान तो हमेशा आनंदस्वरूप हैं। भगवती जो हैं, वो तो आल्हादिनी स्वरूप हैं, आनन्दप्रदायक, उत्पन्न करनेवाली हैं। खुद आनन्दस्वरूप भगवान, आनंद प्रदान करनेवालीं भगवती और आनन्द को पाने वाला भक्त, तीनों जब आनन्द करते हैं, तभी उसे ‘योग’ कहते हैं, तभी उसे ‘योग’ कहते हैं। और इसकी बात, इतनी आसान है देखिए भाई, इसका तिहाई हिस्सा, देखिए हम कुछ काम कर रहे हैं तो कहते हैं, हंड्रेड पर्सेन्ट जॉब करना है। सुबह से एक तिहाई हो चुका, दो तिहाई हो चुका, सेवन्टी पर्सेन्ट हो चुका। अब हमारा ये जो योग का काम है, उसका एक तिहाई हिस्सा तो पहले हो ही चुका है, कि भगवान तो आनन्दस्वरूप ही हैं, भगवती राधा जो हैं, वे आनन्द उत्पन्न करने वाली ही हैं। यानी दो तिहाई हो चुका।

अब काम सिर्फ बचा है, वो एक तिहाई यानी मैं भक्त बनूँ, मैं आनन्दस्वरूप बनूँ। यानी ये जो भूमिका है, ये योग का कार्य जो है, उसमें से सिक्टी सिक्स - सिक्टी पर्सेन्ट काम, दो तिहाई काम तो हो ही चुका है। हमें करने के लिए सिर्फ भगवान ने एक तिहाई काम छोड़ा है। यानी देखिए ये जो सर्वश्रेष्ठ बात है, उसमें भी भगवान और भगवती ने मिलकर दो तिहाई काम किया हुआ है हमारे लिए, हमें बस एक तिहाई काम करना है और वो भी करने के लिए हम तैयार ना हो, तो क्या होगा?

तब योग नहीं हो सकता। हम इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं कि ‘संजोग’ की बात है। संजोग, संजोग का हम सब हर मतलब सोचते हैं। संजोग यानी ऐसे ही, संजोगता से मिले हैं, रास्ते में कोई दिख जाता है, संजोग से मिला। संजोग से यानी लॉटरी जैसी लगती है, वैसे हो जाता है। लेकिन संजोग का ये अर्थ नहीं होता। संजोग यानी जो समयोग है वही संयोग है, संजोग है। समयोग, मेरा मन जब भगवान के मन के सम हो जाता है, एकरूप की बात नहीं कही, सम हो जाता है, तभी, तभी उसे संजोग कहते हैं। अब तक संजोग शब्द का इस्तेमाल ऐसे ही करते रहे और ये संजोग करानेवाली, समयोग करानेवाली ये राधाजी हैं।

जिंदगी में कईं बार ऐसी बात होती रहती है कि हमें कोई मार्ग दिखाता है। कोई ग्रंथ हो, कोई प्रवचनकर्ता हो, कोई वृद्ध माता-पिता हो, कोई दोस्त हो, कोई शत्रु हो, हमें रास्ता दिखाते हैं, हमें डिक्शन मिल जाती है। हम चलना आरंभ भी कर देते हैं, फिर कहीं ना कहीं रास्ता भूल-भटकते हैं। रास्ता भूलकर, दूसरे रास्ते पे चले जाते हैं। कोई बात नहीं, फिरसे चलना शुरू कर दो। ऐसे बार बार करते रहते हैं हम लोग, लेकिन योग नहीं हो पाता। क्योंकि किसी भी जगह आपको जाना है भाई, तो जो जगह, जिस गंतव्य स्थान पर आपको जाना है, उस जगह को एक बार फिक्स करने के बाद में, दूसरे रास्तों पर न चलना ही योग है। यानी जहाँ आपको जाना है, उस तक का जो रास्ता है, वहाँ तक जो रास्ता है, उसके साथ पहले समयोगी होना चाहिए।

‘समयोग’ इस बारे में हमारे सद्गुरु श्री अनिरुद्ध ने पितृवचनम् में बताया, जो आप इस व्हिडिओ में देख सकते हैं।   

|| हरि: ॐ || ||श्रीराम || || अंबज्ञ ||

॥ नाथसंविध् ॥