डस्ट बोल – भाग ​ ३

   

डस्ट बोल – Migration
 
इक्कीसवी सदी में जहाँ पर अनेक देशों की समृद्धता आँखों को चका चौंध कर देती है, प्रगति की होड़ लगी हुई है वहीं दूसरी ओर ऐसे गरीब राष्ट्र भी हैं जहाँ के लोगों की स्थिति एवं विपन्नावस्था देख दिल पर काफ़ी आघात पहुँचता है। प्रगत राष्ट्रों में जहाँ पर हर एक विद्यार्थी के हाथ में टॅब आ पहुँचा हैं, वहीं गरीब राष्ट्रों में बहुतांश बच्चों के लिए शिक्षा हासिल करना भी नसीब नहीं। उनके लिए एक समय का भोजन मिल पाना भी मुश्किल होता है, इसके लिए उन्हें काफ़ी संघर्ष करना पड़ता है। इस दुनिया में सामाजिक विषमता का दर्शन अफ्रीकन नागरिकों के स्थानांतरण का प्रश्न जब उठता है तब होता है।

इसवी सन पूर्व से ही यूरोप, एशिया से आनेवाले आक्रमणकारियों ने अफ्रिका में अपने उपनिवेश (कॉलोनिडा) स्थापित किए। इ.स. पूर्व ३०० वर्ष अर्थात लगभग २३०० हजार वर्षों पूर्व ग्रीक साम्राज्य एवं फोनेशिया के उपनिवेश अफ्रीका खंड में थे। फोनेशिया यह प्राचीन साम्राज्य इ.स. पूर्व १५०० वर्षों से भूमध्य सागर से लेकर सीरिया, लेबेनॉन तक फैला हुआ था। इसी फोनेशियन्स के राज्यकर्ताओं ने इसी साम्राज्य से सटे होनेवाले अफ्रीका के एक बहुत बड़े हिस्से को अपने आधिपत्य में ले लिया था। इसी तरह लिबिया से लेकर ट्युनिशिया के दरमियान प्राचीन ग्रीक साम्राज्य के उपनिवेश थे।

ग्रीक राजा अलेक्झांडरने उत्तर अफ्रीका के अनेक हिस्सों को वे अपने अधिकार में लिया था। विशेषत: इजिप्त, लिबिया, ट्युनिशिया ये भूमध्य सागर के किनारे पर बसनेवाले देशों में इन परकीय आक्रमणकारियों ने अपने उपनिवेश स्थापित किए। इसके पश्चात्‌ रोमन आये। उन्होंने ग्रीकोंद्वारा बसाये हुए शहरों को उद्‌ध्वस्त कर दिया तथा अपने उपनिवेश स्थापित कर दिए। रोमनों ने फिनेशियन्स को हरा कर ट्युनिशिया, अल्जेरिया, लिबिया में अपना साम्राज्य स्थापित कर दिया।

इसके पश्चात्‌ इ.स. पाँचवी सदी के आरंभ में वेंडाल आये। यूरोप के ही पोलंड एवं झेक प्रजातंत्र राज्यों के दरमियान के मूल कहलानेवाले ये अत्यन्त क्रूर, लुटेरे आदिवासी टोलियों ने सर्वप्रथम स्पेन में अपना साम्राज्य स्थापित किया। वहाँ से वे उत्तर अफ्रीका में जा पहुँचे। उन्होंने रोमन साम्राज्य के अनेकों प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया। भूमध्य सागर के अनेक महत्त्वपूर्ण बंदरगाहों पर भी कब्ज़ा कर लिया। रोमन सेना के साथ उनके अनेक स्थानों पर उनकी मुठभेड़ हुई। अनेकों छोटे-बड़े युद्ध हुए। वेंडालों के इस आक्रमण से अभी ठीक से निपट भी नहीं पाये थे कि वहीं छठी सदी में बॅझेंटियन आ पहुँचे। उन्होंने रोमन साम्राज्य के आधे हिस्से को ही हस्तगत कर लिया।

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ग्रीक, रोमन, फिनिशिया, वेंडाल तथा बॅझेंटियन आक्रमणाकरियों ने उत्तर अफ्रीका में अक्षरश: उनके अपने-अपने विशेश कालों में अत्यन्त लूटमार मचा रखी थी। वहाँ के स्थानिक आदिवासियों का शोषण किया। नैसर्गिक संपत्ति की भी लूटमार की। बेशुमार कत्ल भी किए। उत्तर अफ्रीका में वर्षानुवर्ष इस प्रकार की लूट शुरू थी उसी समय दक्षिण पूर्व अफ्रीका में अरबियों का आक्रमण भी हुआ।

सातवी सदी में अरब व्यापारी दक्षिण पूर्व अफ्रीका के किनारे पर दाखिल हुए। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी बस्तियाँ वहीं पर बसानी शुरु कर दी। अफ्रीका में उस समय केवल छोटे-बडे़ आदिवासी साम्राज्य थे। उनकी विविध प्रकार की संस्कृतियाँ थीं। केनिया, टाकेनिया, टांझानिया, मोझंबिक के किनारेवाले क्षेत्रों में अपनी बस्तियाँ बसाने के लिए अरबियों ने अपनी भाषा संस्कृति आदि को उन पर लादना शुरु कर दिया। इसीकारण आज भी इस क्षेत्र में अरब एवं प्राचीन स्थानिक भाषा एवं संस्कृति का अजब मिश्रिण दिखाई देता हैं। इसके पश्चात्‌ अरब व्यापारी धीरे-धीरे छोटी-छोटी बस्तियाँ स्थापित करते हुए अफ्रीका के पश्चिम किनारेवाले क्षेत्रों में आ पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने उसी किनारों वाले इलाकों में किलों आदि की निर्मिती की।

उत्तर, पश्चिम एवं पूर्व अफ्रीका के किनारों के पासवाले प्रदेशों में आक्रमणकारियों एवं उपनिवेशकों की ओर से इस प्रकार की लूटमार चल ही रही थी कि ऐसे में मध्ययुगीन काल में पुर्तुगाली पश्चिम अफ्रीका के केप वर्दे नामक बंदरगाह में दाखिल हुए। उस काल के विकसित यूरोपीय राष्ट्रों से अफ्रीका मे उपनिवेशों की स्थापना करने हेतु अफ्रीकन भूमि में रखा गया उनका यह पहला कदम था। अफ्रीका के आधुनिक युग के इतिहास का आरंभ यहीं से होता है।

उस समय में उत्तर एटलांटिक महासागर में पुर्तुगाली दरिया के राजा थे। उनकी बलाढ्य नौसेना एवं समुद्री सफर की धरोहर इन सब के बलबूते पर पुर्तुगाली दुनियाभर में अपना पैर जमाने के लिए बाहर निकल पड़े थे। अफ्रीका यह उनका पहला पड़ाव था। उनकी जहाजें अफ्रीका के पश्चिमी किनारे पर आ धमकी थीं। आरंभिक समय में काफी अर्से तक उनका समय स्थानिक लोगों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने में बीता। इस दरमियान पुर्तुगालियों को दक्षिण क्षेत्र के कांगो घाटी का सुराग मिला। कांगो नदी अफ्रीका के काफ़ी बड़े विभाग को समृद्ध बनाती है। कहा जाता है कि केप से लेकर कैरो तक अर्थात अफ्रीका के दक्षिण छोर से लेकर उत्तर के छोर तक कांगो अफ्रीका को उर्जा प्रदान करती है। कांगो एवं उसकी उपनदियाँ मध्य अफ्रीका को समृद्ध बनाती हैं। वहीं दक्षिण एवं उत्तर अफ्रीका को एक-दूसरे साथ जोड़ती हैं। पूर्व एवं पश्चिम अफ्रीका में इसी नदी से उत्पन्न होनेवाली अन्य नदियों ने यहाँ के संघर्षमय जीवन को समृद्ध बनाया है। ऍमेझॉन के पश्चात्‌ दुनिया में द्वितीय सबसे अधिक लंबी नदी मानी जानेवाली कांगो नदी का प्राचीन नाम झैरे है। इसी कांगो नदी के रास्ते पुर्तुगालियों ने वहाँ की संपत्ति की लूटमार और भी अधिक बढ़ा दी थी।

धीरे-धीरे उनका व्यापार बढ़ने लगा। निश्चित रुप में उपलब्ध रहनेवाला अड्डा बनाने की ज़रूरत मेहसूस होने लगी। इसीकारण उपनिवेश स्थापित किए गए। किनारेवाले क्षेत्रों में किले बनाये गए। यह उनकी व्यापार की दृष्टि से तैयार किए गए अड्डे थे। व्यापार हेतु आनेवाले यूरोपीयन लोगों ने वहाँ पर अपना स्वयं का अधिपत्य स्थापित करना शुरु कर दिया। सोने एवं अन्य अनमोल धातुओं की खानों में बेहिसाब लूट मचा दी। वहाँ के स्थानिक लोगों को गुलाम बना कर उन्हीं खानों में उन से मज़दूरी करवायी जाने लगी। इसी कारण पुर्तुगाल काफ़ी समृद्ध बन गया।

यूरोप को एशिया के पूर्व की ओर जोड़ने वाले समुद्री मार्ग पर अरब एवं मुस्लिम शासकों का वर्चस्व था। उस काल में इस भाग में काफ़ी जोरदार संघर्ष भी चल रहा था। पुर्तुगाली विकल्पात्मक मार्ग की खोज़ में अफ्रीका में दाखिल हुए थे और उन्हें अफ्रीका में भी सोने का धुआँ निकलता हुआ दिखाई दिया। लगभग सौ वर्षों तक पुर्तुगालियों ने उत्तर, पूर्व अफ्रीका में लूटमार मचा रखी थी। सोलहवी सदी के अन्त में ब्रिटीश, फ्रेंच एवं डच आये।

पुर्तुगालियों के आने ९०० वर्ष पूर्व अफ्रीका में आनेवाली अरबियों ने काफ़ी पहले से ही अपना दबदबा बना रखा था। उन्होंने वहाँ के नागरिकों को पकड़कर गुलाम बनाकर ले जाते थे। उसी प्रकार वे वहाँ की महिलाओं को भी वेश्या व्यवसाय हेतु पकड़कर ले जाते थे। यूरोप में भी इस प्रकार के गुलामों की आवश्यकता पड़ती थी, इसी कारण कम खर्च में उन्हें मनुष्य गुलाम मिल जाते थे। पुर्तुगालियों ने भी धीरे-धीरे यहाँ के नागरिकों को गुलाम बनाकर यूरोप में ले जाना आरंभ कर दिया था। इनके पश्चात्‌ आनेवाले ब्रिटीश फ्रेंच एवं उच उपनिवेशकों को भी यह गुलामों वाला व्यवसाय अधिक फायदेमंद लगा। खनिज संपत्ति की लूटमार सहित उन्होंने इन गुलामों को भी पकड़कर ले जाना शुरु कर दिया।

आरंभ में यूरोप में तैयार किया जानेवाला सामान अफ्रीका में लाया जाता था। वहाँ के स्थानिक आदिवासी प्रमुख एवं राजाओं की ओर से इन सामानों के बदले में बार्टर पद्धतिनुसार वहाँ का अनमोल सोना यूरोप में ले जाया जाता था। इन चीज़ों की कींमतों की अपेक्षा कहीं अधिक कींमती सोना इसी बहाने यहाँ से उठा लिया जाता था।

इसी बीच अमेरिका भी अस्तित्व में आ गया और वहाँ पर तो इस प्रकार के गुलामों की ज़रूरत बुरी तरह से महसूस होने लगी। अमेरिका में जा पहुँचनेवाले ब्रिटीश, स्पेन, फ्रेंच, र्पुतुगाली उपनिवेशियों ने अफ्रीका से ही अटलांटिक सागर के रास्ते जहाजों में गुलामों को भरकर ले जाने का व्यापार ही शुरु कर दिया।

अमेरिका के रेड इंडियन, मायन, नहूआ, मिस्कटेस इन उत्तर एवं दक्षिण अमेरिका के समृद्ध आदिवासी संस्कृतियों को नष्ट कर दिया गया। उनका कत्ल कर दिया गया। कॉलरा,देवी, गौरी के विषाणुयुक्त कंबलों को बाँटकर उस समय जानलेवा मानी जानेवाली बीमारियों का प्रसार वहाँ पर किया गया। इनमें हजारों की संख्या में बेगुनाह मासूम आदिवासियों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा था। यह भी एक प्रकार की हत्या ही थी। यूरोपीय उपनिवेशकों को अफ्रीका के समान ही लूट-मारी अमेरिका में भी करनी थी। परन्तु वहाँ पर उनके पास मनुष्य बल नहीं था। इसीलिए अफ्रीका से गुलाम के रुप में ये मनुष्यबल ले जाया जाने लगा।

अफ्रीका से गुलामों को पकड़कर ले जाया जाता था। यूरोप से लाये जानेवाले तैयार वस्तुओं के बदले में सोना एवं अन्य अनमोल कींमती वस्तुओं के ही साथ-साथ इन आदिवासी टोली प्रमुख एवं राजा कैद में रखे जानेवाले युवकों को गुलाम के रुप में रख लेते थे। धीरे-धीरे आदिवासी टोलियों पर आक्रमण करके उन्हें सीधे गुलाम कहकर पकड़ लिया जाता था। बंदूकें इन सब में अधिक महत्त्वपूर्ण घटक मानी जाती थी। यूरोपीय उपनिवेशियों के पास बंदूकें हुआ करती थीं। इन्हीं बंदूक के जोर पर उन्होंने अनेक टोलियों एवं छोटे-मोटे साम्राज्यों का नामोंनिशान ही मिटा दिया था। इन्हीं बंदूकों का भय दिखाकर उन्होंने आगे चलकर लाखों लोगों को गुलाम बना दिया। गरीब लाचार एवं आतंक की छाया में पनपने वाले अफ्रीकन नागरिकों को गुलाम बनाना यह गुलामों के व्यापार का ‘फस्ट पॅसेज’ था।

 

 

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अटलांटिक महासागर के मार्ग से अफ्रिका से लाये गये गुलामों को युरोपीय उपनिवेशवादी इस तरीके से जहाजों में लादकर ले जाते थे| विडंबना यह है कि आज इसी तरह अफ्रिकन नागरिक खुद ही युरोप में जा रहे हैं

 

 

इसके पश्चात्‌ मिडल पॅसेज’ था इन गुलामों को अमेरिका में ले जाना, तो अंतिम पड़ाव माना जाता था अर्थात ‘फायनल पॅसेज’। इन गुलामों की बिक्री और गुलामों की सहायता से तैयार करवाया गया कच्चा माल यूरोप में ले आना।

इन गुलामों को अमेरिका में ले आने के लिए उसी प्रकार यूरोप में ले जाने के लिए अक्षरश: उन्हें जहाजों में भेड़-बकरियों की तरह ठूस दिया जाता था। इन जहाजों की स्थिती इतनी खराब हुआ करती थी कि रास्ते में ही अनेक गुलामों को मार डाला जाता था। कभी जहाज उलट जाती थी तो कभी उसी भीड़ में घूटकर उनकी मृत्यु हो जाती थी। एक आँकड़ेवारी के अनुसार लगभग पाँच करोड़ की अपेक्षा भी अधिक अफ्रीकन नागरिकों को उस समय में यूरोप एवं अमेरिका में गुलाम बनाकर पकड़कर ले जाया गया था। इन गुलामों पर काफ़ी अत्याचार किया जाता था। उन्हें अन्न-पानी दिए बगैर रखा जाता था। साथ ही चाबूक से मारा जाता था। इअ अत्याचार से पीड़ित होकर अमेरिका पहुँचने से पहले ही रास्ते में ही तीन करोड़ गुलामों ने दम तोड़ दिया।

अफ्रीका की ही तरह अमेरिका में भी यूरोपीय उपनिवेशियों ने लूट मचा रखी थी और इसके आवश्यक मनुष्य बल अफ्रिका से गुलामों के रुप में लाया जाता था। गोरे एवं काले का भेद निर्माण कर दिया। गोरे यानि श्रेष्ठ यह बात उनके मन में दृढ़ कर दी गयी थी। वांशिक अनबन बढ़ा दी गई। रंगभेद बढ़ा दिया गया और जितना अधिक जोर-जबरदस्ती से ले जा सकते थे उतना अधिक अफ्रीका से इन यूरोपीय अनिवेशियों ने लूट लिया।

चार सदियों तक यह लूटमार तथा गुलामों का व्यापार चलता रहा। परन्तु जैसे-जैसे औद्योगिक क्रांति जोर पकड़ती गई वैसे-वैसे मनुष्य बल हेतु गुलामों की ज़रूरत कम होती गई और धीरे-धीरे यह व्यापार स्थगित कर दिया गया। परन्तु तब तक पानी काफ़ी हद तक सिर से ऊपर उठ चुका था अफ्रीका की कितनी पिढ़ीयाँ उद्‌ध्वस्त हो चुकी थीं।

सच पुछा जाय तो अफ्रीका, एशिया एवं अमेरिका के यूरोपीय उपनिवेशवादियों का इतिहास, उनके द्वारा किया गया अत्याचार एवं लूटमार के बार में लिखा जाय तो हजारों पन्ने भी कम पडे़गें। मजेदार बात तो यह है कि ग्रीक, रोमन यह अफ्रीका के आदय उपनिवेशवादी होने का दावा किया जाता है, फिर भी उनका उगम भी उत्तर अफ्रिका ही है यह सिद्धांत प्रस्तुत किया जाता है। ग्रेट ब्रिटन के आद्य रहिवासी कहलाने वाले ब्रिटॉन्स यानि सेल्टिक वंशीय (इस मुख्य उत्तर के सिद्धांतानुसार यही कहा जाता है कि वे अफ्रीका के ही थे) ये मूल के उत्तर अफ्रिका से ही थे यह बात इस सिद्धांत से सिद्ध होती है । उत्तर अफ्रिका में नाईल नदी के तीर पर इजिप्त, ट्युनिशिया, मोरोक्को, अल्जेरिया में दिखाई देनेवाली कुछ प्राचीन जाति-जमातियों की भाषाओं एवं सेल्टिक भाषा में काफ़ी समानता है। वैसे ही स्कॉटलंड में कुछ सेल्टिक लोगों की डीएनए अर्थात्‌ उनके हॉरमोन्स का परिक्षण किया गया था। इसी के अनुसार उत्तर अफ्रीका के इस जमाती का और यूरोप के इन आद्य रहवासियों के हॉरमोन्स में (जनुकीय) समानता दिखाई दी थी। संक्षेप में देखा जाय तो अफ्रीका एवं यूरोप के बीच होनेवाला यह रिश्ता-नाता काफी पुराना है।

जो भी हो, बीसवी सदी के मध्यावस्थ में अनेकों देश इन उपनिवेशवादियों की जकड़ से मुक्त हुए। मात्र इन यूरोपीय उपनिवेशवादियों का इन देशों को इतना अधिक तोड़-मरोड़ एवं लूटमार की थी कि इन देशों की कितने ही वर्षों तक इस स्थिती से बाहर निकलने की कोई संभावना ही नहीं रह गई थी। उपनिवेशवादियों ने जिन-जिन देशों में अपने उपनिवेश स्थापित किए थे, वहाँ की संस्कृति एवं सामाजिक उतार-चढ़ाव संपूर्णत: खंडित कर दिया गया था। वहाँ की संपत्ति की लूटमार करके इन देशों को गरीबी की खाई में ढ़केल दिया गया था।

इन में भारत का भी समावेश था। यदि भारत के नेताओं ने सत्तर के दशक में उस भीषण अन्न की कमी के पश्चात्‌ योग्य नीति नहीं अपनाई होती तो अर्थव्यवस्था में मजबूती के साथ सुधार नहीं किया गया होता, तो आज भी भारत की स्थिती वैसी ही रही होती। फिर भी आज असंख्य ग्रामीण एवं शहरी जनता गरीबी की आग में झुलस रही है। ग्रामीण क्षेत्र की ओर से शहर की ओर से कामधंधे हेतु उनका स्थानांतरन शुरु है। क्योंकि ब्रिटिशों ने यहाँ के गाँवों के कारोबार आदि उद्‌ध्वस्त कर दिए थे। ब्रिटिशों के आगमन से पूर्व ये खेड़ा-गाँव आदि स्वयंपूर्ण थे। इन ग्रामीण क्षेत्रों में वहाँ के ग्रामीणवासियों की ज़रूरतें वहीं पर पूरी की जाती थी। इस प्रकार की व्यवस्था एवं रचनाएँ की गई थी।

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यूरोपीय उपनिवेशवादियों के उपनिवेश जिन-जिन देशों में थी। उन सभी विशेष देशों में यही किया गया। वहाँ की सांस्कृतिक एवं सामाजिक उतार-चढ़ाव को भी पूर्णत: बिगाड़ दिया गया था। यूरोपीय उपनिवेशवादियों द्वारा लूटे गए अनेक देश आज असंख्य समस्याओं में घीरे हुए हैं। इनमें दक्षिण अमेरिकन देशों का भी समावेश है। अमेरिका के पड़ोसी माने जाने वाले मेक्सिको की स्थिती भी भयावह ही है, वहाँ पर भी तस्करों, माफियों के राज्य हैं। गरीबी है, निरक्षरता है। इन सबसे पिटे गए मेक्सिकन युवक अफ्रीकन नागरिकों के समान ही स्थानांतरण करके अमेरिका के (यूएस) में दाखिल हो रहे हैं। इसी मार्ग से दक्षिण अमेरिका के अन्य देशों से भी अमेरिका से स्थानांतरण हो रहा है। अफ्रीका से यूरोप में होनेवाला स्थानांतरण के बाद सबसे अधिक स्थानांतरण दक्षिण अमेरिका, मेक्सिको से अमेरिका में होता है । इस स्थानांतरण के दरमियान मृत्यु का प्रमाण भी अफ्रीका के पश्चात्‌ सर्वाधिक है।

अफ्रीका की स्थिती तो और भी अधिक बिगड़ी हुई है। अफ्रीका का यह इतिहास देखने पर पता चलता है कि सदियों से अफ्रीका में आक्रमणकारियों की ओर से लूटमार एवं जितना हो सके उतना उनकी खाल उधेड़ी जा रही है। उन किस्मत के मारों को आने वाले सभी राष्ट्रों की ओर से केवल लूटा ही गया है। अंग्रेजी भाषा में एक प्रांत से दूसरे देश में स्थानांतरित होकर आने वाले ‘एलियन’ इस पर्यायी शब्द का उपयोग किया जाता है। इन्हीं ‘एलियन’ लोगों ने अफ्रीका की संपूर्णत: बर्बादी कर दी। इन्हीं ‘एलियनों’ ने अफ्रीका को गरीबी की खाई में ढ़केल देने के कारण ही आज सामान्य अफ्रीकन नौजवान अपना देश, अपनी जन्मभूमि को छोड़कर संघर्ष मुक्त जीवन का स्वप्न लेकर विविध मार्गों से यूरोप एवं अमेरिका में दाखिल हो रहे हैं।

कैसी विडंबना है, पंद्रहवी सदी से यूरोपीय उपनिवेशवादी इन अफ्रीकन युवकों को जोर-जबरदस्ती के साथ उन पर नाना प्रकार के अत्याचार करके गुलाम के रुप में उन्हें पकड़ कर ले जाते थे। आज स्थिती ऐसी हो गई है कि यही अफ्रीकन युवक स्वयं ही इन देशों में जाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। इसका मूल कारण यह है कि इन युवकों को यूरोप एवं अमेरिका की होनेवाली पहचान। उनके बारे में सामान्य अफ्रीकन के मन में होनेवाली प्रतिमा।

(क्रमश:)