आक्रमक जापान - भाग २

ज इन नीतियों को अपयश मिला है ऐसा कहा जाता है। इसीलिए २०१२ के चुनाव में जोरदार यश प्राप्त करनेवाले ऍबे की लोकप्रियता पतन की ओर जा रही है। परन्तु ऍबे ने स्वयं ही मध्यावधी चुनाव करवाने का निर्णय लिया है। इससे उनका अपने यश के प्रति आत्मविश्वास बढ़ता हुआ दिखाई देता हैं। इस चुनाव में ऍबे को पहले के समान यश प्राप्त होगा या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता है। परन्तु वे पुन: सत्ता में आयेंगे, ऐसा जापान के विश्लेषकों का मानना है।

इसीलिए ऍबे द्वारा स्वीकारी गई जापान की आक्रमक नीति भी वैसी ही रहेगी। किंबहुना और भी अधिक आक्रमक बन जायेगी, ऐसा प्रतीत होता है। यह आक्रमक नीति अर्थात हम चीन के सामर्थ्य की कोई परवाह नहीं करेंगे, इस प्रकार का सुस्पष्ट संकेत माना जाता है। ऍबे ने जापान के याकुसुनी युद्ध का भी दौरा किया।

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जापान के मंत्री अथवा प्रतिनिधि यदि इस युद्धस्मारक का दौरा कर आये तो भी वह चीन में तिरस्कार का विषय ही माना जाता है। क्योंकि चीन एवं जापान इसके बीच होनेवाले युद्ध में काम आनेवाले जापान के सैनिकों का स्मारक यहाँ पर मौजूद है। इसी युद्ध में जापान के सैनिकों ने चीन पर अनन्वित अत्याचार किए। इसकी भयावह कथाएँ आज भी चीन में बयान की जाती है। कालांतर में दोनों ही देश इस इतिहास को भूलने की कोशिश करने लगे। अब इन दोनों देशों के बीच व्यापारी सहकार्य भी आरंभ हो चुका हैं। परन्तु जापान का याकुसुनी युद्ध स्मारक अर्थात चीन के लिए वेदनादायी जख्म साबित होता है। ऍबे ने स्वयं इस युद्धस्मारक को भेट देकर चीन को उत्तेजित किया।

इसी कारण गुस्से से आगबबूला हो उठनेवाले चीनने ऍबे के प्रति चर्चा के सारे द्वार बंद कर दिए। चीन के प्रसारण केन्द्रों से ऍबे पर संभवत: प्रत्यारोपण किया जा रहा था। परन्तु इन सभी के दौरान,चीन को इतना संताप करने की क्या ज़रूरत है यह प्रश्न ऍबे बिलकुल शांत मुद्रा में कह रहे थे। यह जापान के लिए बलिदान देनेवाले सैनिकों का स्मारक है। यहाँ पर मुलाकात देकर मैंने कोई युद्ध का समर्थन नहीं किया है, ऐसा ऍबे का कहना था। चीन के लिए इस बात को मान्य करना संभव ही नहीं था। परन्तु इस प्रकार के प्रतिकात्मक विरोध की अपेक्षा भी चीन के संताप को और अधिक बढ़ाने के लिए कारणीभूत हुई, ऍबे की सुरक्षाविषयक नीति।

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ शरण आनेवाले जापान पर अमेरिका ने अनेकों शर्त लाद दिए हैं। इसमें सैनिकी सामर्थ्य नहीं बढ़ाना है, यह उनकी प्रमुख शर्त थी। इसके बदले में अमेरिका ने जापान के संरक्षण की ज़िम्मेदारी ली थी। जापान ने इस मौके का पूरा फायदा उठाते हुए आर्थिक प्रगति पर अपना पूरा लक्ष्य केन्द्रीत किया। उसके फल भी जापान को मिलने लगे। जापान यह पाश्चिमात्य देशों के साथ आर्थिक रुप में बराबरी करनेवाला एकमेव एशियाई देश बन गया। परन्तु संरक्षण के मामले में जापान को चिंता करने की आनेवाले समय में भी ज़रूरत मेहसूस नहीं हुई। चीन के अधिकाधिक बलाढ्य बन जाने के पश्चात्‌ मात्र जापान को इस ओर विचार करने की ज़रूरत मेहसूस होने लगी।

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द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ जापान लश्करी क्षमता को नहीं बढ़ाएगा, इस प्रकार की शर्त रखनेवाले अमेरिका ने भी ऐसी माँग शुरु कर दी कि अब जापान को अपना लश्करी खर्च बढ़ाना चाहिए, परन्तु जापान में द्वितीय विश्वयुद्ध के भीषण परिणाम का अनुभव लेनेवाले एवं इस युद्ध का तिरस्कार करनेवाला काफी बड़ा समूह वहाँ पर मौजूदा स्थिति में था। इस समूह का युद्ध के साथ ही संरक्षण विषयक क्षमता विकसित करने प्रति भी विरोध है। आज तक जापान के हर एक सरकार को इस समूह का सम्मान रखते हुए उनकी नीति का स्वीकार करना पड़ता था। चीने ने ‘सेंकाकू’ प्रकरण को उखाड़ फेकने के पश्चात्‌ जापान वह युद्ध विरोधी समूह असक्षम बन गया। चीन को ईंट का जबाब पत्थर से देनेवालों की माँग करनेवालों की संख्या उनकी अपेक्षा काफी अधिक है।

ऍबे ने चीन को प्रत्युत्तर देते समय, युद्ध विरोधी समूह की माँग की ओर पूर्णरूपेण अनदेखा कर दिया। और उन्होंने जापान के संरक्षण खर्च में वृद्धि कर दी। यह वृद्धि चीन के लिए एक चुनौती थी। अब तक चीन का संरक्षण खर्च १३१ अरब डॉलर्स तक पहुँच चुका था। परन्तु ये आँकड़े मात्र लोगों को दिखाने के लिए है। अन्यथा चीन का संरक्षण खर्च इसकी अपेक्षा कई गुणा अधिक है, ऐसा आरोप अमेरिका लगाती है। चीन के इस बढ़ती हुई संरक्षण सिद्धता को मात्र टक्कर देनी है तो, जापान के बचावात्मक संरक्षण विषयक नीति को मात्र पूर्णत: बदलने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था। शिंजो ऍबे ने इसकी शुरुआत संरक्षण खर्च के बढ़ती से की।

जापान के सागरी सरहद की सुरक्षा हेतु ऍबेद्वारा लिया गया निर्णय पिछले ग्यारह वर्षों की अवधि में ही जापान की ओर से नहीं लिया गया था। सागरी सुरक्षा हेतु ९२.६ अरब डॉलर का निवेश करने का उद्देश्य ऍबेने जापान के समक्ष रखा। आनेवाले पाँच वर्षों के कालावधि में ऍबेने इस क्षेत्र की सुरक्षा हेतु मानवरहित ड्रोन्स, ‘एफ ३५ए’ लड़ाकू विमान, पाँच युद्ध नौकाएँ, दो बॅलेस्टिक क्षेपणास्त्र, छह विनाशिकाएँ बढ़ाने का निर्धार व्यक्त किया। इसके लिए १४३ अरब डॉलर्स के निवेश की घोषणा की है।Aggresive-Japan-02-13

इस पर चीन की प्रतिक्रिया भी आई। परन्तु ऍबे ने उनकी ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। मात्र इसके साथ ही ऍबे ने चीन के प्रतिस्पर्धी एवं विरोधी देशों के साथ हाथ मिलाना शुरु कर दिया। सामरिक भाषा में देखा जाय तो इसे ‘कलेक्टिव्ह सिक्युरिटी अरेंजमेंट’ कहा जा सकता है। सामरिक स्तर पर होनेवाली यह हलचल अर्थात ऍबे इनका मास्टर स्ट्रोक था।

जापान के कुछ बंदरगाहों पर अमेरिका के लश्करी अड्डे हैं। अमेरिका अपने इस अड्डों को यहाँ से हटा दे, ऐसी माँगें जापान के जनता की ओर से की जा रही थीं। परन्तु बदलती हुई परिस्थिती में यह असंभव है इस बात का अहसास ऍबे को हो चुका था। उन्होंने अमेरिका के साथ संरक्षक विषयक सहकार्य और भी अधिक बढ़ा दिया। उस समय ‘द्वितीय विश्वयुद्ध’ के पश्चात्‌ होनेवाले करार के अनुसार जापान की संरक्षण विषयक ज़िम्मेदारी अमेरिका पर होगी। यह अमेरिका को सूचित कर दिया गया था।

क्रमश:..

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