सद्‌गुरू श्रीअनिरुद्ध बापूके श्रीश्वासम्‌ प्रवचन का हिन्दी अनुवाद (Shreeshwasam)

हरि ॐ, श्रीराम, अंबज्ञ! पहले हमें अब श्रीसूक्त सुनना है। श्रीसूक्त... वेदों का यह एक अनोखा वरदान है जो इस... हमने उपनिषद् और मातृवात्सल्यविंदानम् में पढ़ा है कि लोपामुद्रा के कारण हमें प्राप्त हुआ है...महालक्ष्मी और उसकी कन्या लक्ष्मी... इस माँ-बेटी का एकसाथ रहनेवाला पूजन, अर्चन, स्तोत्र, स्तवन... सब कुछ... यानी यह ‘श्रीसूक्तम्’। तो आज पहले... स़िर्फ आज से हमें शुरुआत करनी है। ‘श्रीसूक्तम्’ का पाठ हमारे महाधर्मवर्मन् करनेवाले हैं।

 

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Aniruddha Bapu- Shreeshwasam - 12 March 2015

 

हरि ॐ, श्रीराम, अंबज्ञ| अर्थ आज हमें समझ में न भी आया हो...कोई बात नहीं। लेकिन इस माँ का...मेरी आदिमाता का ‘श्री’ यह जो ओरिजिनल स्वरूप है, उस रूप का, उसके गुणों का, उसके भावों का... और यह जो कन्या लक्ष्मी उसके साथ उसके लिए कार्य करती है, उन दोनों के समग्र अस्तित्व का वर्णन इस सूक्त में किया गया है। बहुत ही पवित्र... और यह श्रीसूक्त 9 स्तरों पर से, 9 स्रोतसों से, 9 मार्गों से कार्य करता है और इस श्रीसूक्त में से ही ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इन तीन वेदों में आरोग्य (स्वास्थ्य), हेल्थ; आरोग्य यानी महज़ शरीर का नहीं बल्कि मन का आरोग्य, प्राणों का आरोग्य, प्रज्ञा का आरोग्य, अखिल जन्म का आरोग्य, हमारी हर एक स्थिति का आरोग्य, हमारी सांपत्तिक स्थिति का आरोग्य, हमारी वैचारिक स्थिति का आरोग्य, हमारी भावनिक स्थिति का आरोग्य, हमारे घर के माहौल का आरोग्य इन सब प्रकार के आरोग्य को हमारे तीन वेदों ने जगह जगह से, अलग अलग मार्गों से अत्यधिक बल की आपूर्ति की है। लेकिन वे वेद इतने विशाल हैं, देखने जायें तो वेदग्रन्थ इतने बड़े बड़े हैं, उनकी संस्कृत भाषा, वह भी बहुत ही प्राचीन संस्कृत, जो आज के संस्कृत जाननेवालों की भी पूरी तरह समझ में नहीं आती। उसके अनुसार वह आह्निक करो, उसके अनुसार वह त्रिसंध्या करो, फिर उसके अनुसार वे सूर्यनमस्कार करो, उसके अनुसार वह सारा यज्ञकर्म करो, यह सब आज के ज़माने में संभव नहीं होता। साथ ही संस्कृत भाषा बहु-आयामी है। क्योंकि कैसे होता है? मराठी, अँग्रेज़ी में हम कहते हैं- ‘राम पीला आम खा रहा है’ और ‘गोपाल पपई खा रहा है’ यह वाक्य सीधे सीधे आता है। अँग्रेज़ी, हिन्दी में इसी तरह रचना होती है। लेकिन संस्कृत में ‘राम’ यह शब्द एक छोर में होगा, पहला शब्द ‘आम’ होता है, फिर ‘पपई’ यह शब्द उसके दो शब्द बाद आया होगा। अब किसे किसके साथ जोड़ना है? राम को आम के साथ या इसे पपई के साथ, यह तय करने के भी नियम हैं। लेकिन आज भी उन नियमों को अनेक लोग नहीं जानते, यहाँ तक कि पंडित कहलवाने वालों को भी इसकी जानकारी नहीं रहती। एक की शब्द के अनेक अर्थ निकलते हैं। मैंने अनेक बार यह उदाहरण दिया है कि ‘नाग’ यह शब्द है। नाग यानी नाग, ‘कोब्रा’ नाग। नाग शब्द का एक अर्थ है हाथी, वहीं दूसरा अर्थ है एक धातु। अब कोई व्यक्ति कहीं पर यह उल्लेख करता है कि नाग से यह वस्तु बनायी है, तो वहाँ ‘नाग’ इस शब्द का अर्थ ‘जस्त’ ही लेना चाहिए। मग़र कभी कभी इसका अर्थ ‘हाथी-दाँत’ ऐसा भी लिया जाता है। फिर समस्या हो जाती है। साथ ही बात ऐसी है कि व्याकरण बहुत मुश्किल है।

एक कहानी बतायी जाती है, जो मुझे यहाँ बताना ज़रूरी लग रहा है। एक रानी बहुत पढी लिखी होती है, वहीं उसका ब्याह जिस राजा के साथ हुआ होता है वह बहुत ही अनाड़ी रहता है। उसे संस्कृत बिलकुल भी नहीं आती है। उसका बाप राजा होने के कारण वह राजा बना होता है। एक दिन झील में जलक्रीड़ा करते समय.... राजस्त्री और राजपुरुष सब की उपस्थिति में, राजा रानी के बदन पर पानी उड़ाता है। राजा जब पानी उड़ाता है, तब रानी कहती है- ‘मोदकै: सिंच।’ रानी के ‘मोदकै: सिंच’ ये शब्द सुनते ही राजा सेवकों को आज्ञा देता है, चुपचाप बुलाकर; और राजा की आज्ञा होते ही थाली भरकर मोदक आ जाते हैं। राजा मोदक लेकर रानी को मारने लगता है। रानी शरम से पानी पानी हो जाती है। क्योंकि उस वाक्य का अर्थ होता है.... ‘मोदकै: सिंच’ यानी ‘मा उदकै: सिंच।’ ‘मा’ यानी मत। मुझ पर पानी मत फेंको। और रानी की इज़्जत सबके सामने चली जाती है....उसके मायके की महिलाएँ आयी होती हैं। वे अच्छी तरह संस्कृत जानती थीं। उसका पति अनाड़ी है इस बात का पता चलते ही उन्हें बहुत दुख होता है। ‘मा’ यानी नहीं। लेकिन उसकी सन्धि होने के बाद ‘मोदकै:’- ‘मा उदकै: सिंच’ यह इसी तरह अर्थ निकालकर हम तक.... वह भी जानबूझकर, कभी कभी चालाक़ी से हमें अज्ञान में रखा जाता है।

आज के ज़माने में इस तरह यज्ञ करना, ठीक समय पर उठकर उन यज्ञों को करना, उस यज्ञसत्र का संचालन करना हमारे लिए मुमक़िन नहीं होता। साथ ही हम जो खा रहे हैं वह अन्न कितना शुद्ध है इसके बारे में हम नहीं जानते। बिलकुल भी नहीं जानते। हम जो हवा भीतर लेते हैं वह कितनी शुद्ध है, क्या हम यह जानते हैं? बिलकुल भी नहीं। हमारे आसपास के लोग कैसे हैं? हम नजीं जानते। हमारा मन कैसा है? क्या हम जानते हैं? और इसीलिए इस माँ की आज्ञा के अनुसार मैंने ‘हेल्थ’ (स्वास्थ्य) के बारे में भाषण किया, समझाया। क्या अच्छा खाना चाहिए, क्या नहीं खाना चाहिए आदि......साथ ही अब सर्वोच्च बात- इस माँ का उपहार मैं तुमतक ले आया हूँ और वह है- ‘श्रीश्वासम्’ यानी ‘द हीलिंग कोड ऑफ द युनिव्हर्स’ अर्थात् ‘वैश्विक निरोगीकरणम् गुह्यसूक्तम्’। ‘निरोगीकरणम् गुह्यसूक्तम्’ यानी ‘द हीलिंग कोड ऑफ द युनिव्हर्स’ और उसे ही जानना है हमें, उसीका उत्सव मनाना है हमें। किस तरह मनाना है, उसके पीछे की भूमिका क्या है, यह आज मैं संक्षेप में बता सकता हूँ। सब कुछ ‘इन डिटेल’ यदि मैं आज बताने जाऊँ, तो हमें तीस- पैंतीस घंटे लग जायेंगे और यह संभव नहीं है। अत एव जितना आवश्यक है, उतना मैं तुम्हें समझाने वाला हूँ। हम इसमें अनुभव करनेवाले हैं और उसके बाद पहले मेरे भाषण की कॉपी अवश्य उपलब्ध करायी जायेगी। परंतु ‘श्रीश्वासम्’ के पहले या कम से कम उस दिन तक तो उसपर की एक छोटी पुस्तिका बनाकर मैं स्वयं तुम तक ले आऊँगा।

तो इस बात पर ग़ौर कीजिए कि यह जो विश्‍व है, उस विश्‍व में चूँकि उस आदिमाता और उसके पुत्र ने मनुष्य को उत्पन्न किया, जीवन उत्पन्न किया, उनका क्या क्या हो सकता है, यह सब कुछ उन्होंने देखा ही होगा। ठीक है? माँ जिस तरह बच्चे को स्कूल भेजती है, उसके साथ टिफिन देती है, पानी की बोतल देती है, एक रुमाल देती है, ज़रूरी सामान देती है, उस तरह सारा ध्यान उस बड़ी माँ ने इन मानवी जीवों को, हम सबको इस पृथ्वी पर, वसुंधरा पर यानी स्कूल में भेजते समय रखा ही है। हमारा घर है वह ‘भर्गलोक‘। भर्गलोक से हम इस स्कूल में आये हैं। उस माँ ने सारा ध्यान रखा है। हमारे सामने क्या क्या मुश्किलें पेश हो सकती हैं, इसका ख़याल उसने रखा है। पहले हमें यह पता होना चाहिए कि हमारी इस माँ को, जिसे हम आदिमाता कहते हैं, उसे कुछ लोग महज़ शक्ति मानते हैं, ऊर्जा मानते हैं; वहीं दूसरी तरफ़ से देखा जाये तो यह झूठ नहीं है। सच नहीं है, मग़र पूरी तरह झूठ भी नहीं है। तुम जो मानोगे उसपर निर्भर करता है। लेकिन ‘माँ’ मानना और महज़ ‘शक्ति’ मानना इनके बीच में बहुत फ़ीर्क है। माँ मानने में ‘अनकण्डिशनल लव्ह’ है। बच्चा कुछ करता है माँ के लिए, इसके लिए माँ उसे दूध नहीं पिलाती, बल्कि वह उसकी संतान रहती है, इसलिए वह दूध पिलाती है। और वह अपने आप उत्पन्न होता है। उसे ऑर्डर नहीं करनी पड़ती कि दूध दे दो या दवा नहीं खानी पड़ती। नहीं, वह अपने आप उत्पन्न होता। खाना खाते समय बच्चे की टट्टी साफ़ करने में उसे बिलकुल भी गन्दगी महसूस नहीं होती। यह वात्सल्य होता है। यदि शक्ति मानते हो, तो वह स़िर्फ अध्यापिका की भूमिका में आ जाती है। तुम्हारे बॉस की भूमिका में आ जाती है। और फिर जिसके मन में जैसा भाव वैसा उसे अनुभव। मग़र हमें वह माँ के रूप में ही चाहिए क्योंकि वह उसका मूल स्वरूप है। उसीने सारे विश्‍व को जन्म दिया है, इसका अर्थ यह है कि वह विश्‍व की माता है। आ गयी बात समझ में? यह एनर्जी ही, यह ऊर्जा ही सारी दुनिया में भरी हुई है। इस विश्व में अनंतकोटि ब्रह्मांडों में स़िर्फ ऊर्जा ही भरी है। यानी क्या? स्पंदन ही हैं। और इन स्पंदनों में से ही जगत् का विकास होता गया। हम जानते हैं कि जो निर्गुण निराकार ब्रह्म था, उसे हम ‘दत्तगुरु’ कहते हैं, उसमें ही वह अदिति यानी अखंडित रूप में, मूल निर्गुण निराकार रूप से अभेद रूप में यानी उसीमें रहनेवाली वह अदिति नाम से थी। जब उस परमेश्वर को एहसास हो गया कि मैं परमेश्वर हूँ, वह परमेश्वर का एहसास ‘गायत्री’ रूप में प्रकट हो गया और गायत्री ने पहली बार ध्वनि को उत्पन्न किया, बिग बँग में, कौन सी ध्वनि- ‘ॐ’ यानी प्रणव। उसी व़क्त उसने उन तीन पुत्रों को जन्म दिया। ठीक है? दत्तात्रेय, किरातरुद्र और परमात्मा देवीसिंह। और साथ ही हमने यह भी देखा कि ‘त्रिविक्रम’ कौन है? तो वह उस अदिति रूप का पुत्र है। यह अदिति उस निर्गुण निराकार से संबंधित है, साथ ही वह मानव के लिए ‘श्रीविद्या’ रूप में प्रकट हुई, सोलह कलाओं से। ‘त्रिविक्रम’ यह उस अदिति का पुत्र है और इसीलिए उसे ‘आदित्य’ भी कहते हैं। और वह उस श्रीविद्या का पुत्र है।

ऐसे ये जो त्रिविक्रम हैं, वे हमारे सभी प्रकार के स्वास्थ्य को, जिनका हमने वर्णन किया उस सभी प्रकार के स्वास्थ्य को बल देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। आदिमाता की रचना, यह सारी जो एनर्जी है विश्व में, इस माँ आदिमाता ने क्या किया कि पहले अन्न को और उसके बाद वह अन्न खानेवाले को निर्माण किया। किसी भी प्राणि का निर्माण करते समय आदिमाता ने यह सूत्र सँभाला है। पहले मानव का निर्माण किया, पहले प्राणि का निर्माण किया और उसके बाद उसका अन्न निर्माण किया? नहीं, ऐसा नहीं किया। पहले प्राणवायु का निर्माण किया, पहले जल उत्पन्न किया और फिर उसका आस्वाद लेनेवाले जीवों को उत्पन्न किया। इस तरह बीमारी उत्पन्न होने से पहले ही उसने सारी दवाइयाँ, उसके द्वारा सब कुछ तैयारियाँ करनी थीं, वे कर रखीं। आज हम दवाइयाँ निर्माण नहीं कर रहे हैं, दवाइयों की खोज कर रहे हैं, डिस्कव्हरीज कर रहे हैं।

इस हीलिंग कोड का उपयोग हम करेंगे इसका अर्थ क्या हम दवाइयाँ नहीं लेंगे? या ऑपरेशन नहीं करायेंगे कभी ज़रूरत पड़ने पर? ऐसा बिलकुल भी नहीं है। इट इज नॉट द रिप्लेसमेंट क्योंकि वह बहुत स्थूल स्तर पर की बात है। स्थूल स्तर पर की। डॉक्टर के द्वारा दी गयी दवा खानी ही पड़ेगी, व़क्त आने पर। ऑपरेशन कराना ही पड़ेगा। मग़र उसमें सफलता मिलना या न मिलना, दवा का असर होना या न होना और उचित डॉक्टर का मिलना, उसके द्वारा उचित समय पर ट्रीटमेंट दी जाना, उस ट्रीटमेंट को हमारा सह सकना, साईड इफेक्ट न होना या दुष्परिणाम न होना इन सबके लिए यह हीलिंग कोड है और सबसे अहम बात यह है कि ऐसी मुसीबत ही पेश न आये इसलिए यह हीलिंग कोड है। मग़र यह पहले भी है और वैसा व़क्त आने पर भी है, यह हमें ज्ञात होना चाहिए। यह सारी एनर्जी है, इस एनर्जी में हमारा शरीर भी, आज क्वांटम फिजिक्स हमें क्या बताता है? तो ध्यान में रखिए कि यह जो ऊर्जा है ना, यह ऊर्जा सब जगह है..... अब यही बात देखिए कि तुम्हारा कपड़ा फटा हुआ है, तो उस कपड़े पर क्या प्लास्टिक की पट्टी चिपकाना मुनासिब होगा? नहीं चलेगा। या हीरे की पट्टी लगाकर चलेगा? नहीं चलेगा। कपड़े के लिए कपड़ा ही होना चाहिए। सोने का टुकड़ा यदि बर्तन में जोड़ना हो तो सोने का ही जोड़ना चाहिए। तब ही जाकर वह एकरूप होनेवाला है। मिट्टी का मटका घर में ले आये और उसमें सोना डाल दिया बाद में, तो क्या होगा? वह जोड़ वहीं के वहीं टूट जायेगा। यानी क्या? जिस प्रकार की प्रॉब्लेम होती है, उसी प्रकार के उपाय की आवश्यकता होती है। ठीक है? वरना ‘आग एक जगह लगी और दमकल की गाड़ी दूसरी जगह भेज दी’ ऐसा होना मुनासिब नहीं है। ठीक है? और इसीलिए इस माँ ने यह सब अलग अलग बीमारियों की भी क्या? ...... तो सारी बात फ्रिक्वेन्सी है। तुम और मैं भी स्पंदन हैं। तो उन स्पंदनों में यदि खराबी हो जाती है, शरीर में खराबी हो जाती है, मन में खराबी हो जाती है, स्थिति में खराबी हो जाती है यानी हमारे स्पन्दनों में खराबी हो जाती है।

फिर उन स्पन्दनों को दुरुस्त करनेवाले स्पन्दनों का निर्माण तो उसने किया ही होगा। लेकिन हम उनका स्वीकार नहीं कर सकते। और उनका स्वीकार नहीं किया जा सकता इसलिए हम ट्रीटमेंट नहीं ले सकते। जिस तरह किसी गाँव में अस्पताल ही नहीं है, तो वहाँ का वह बेचारा मरीज़ कुछ भी नहीं कर सकता। जेब में पैसे तो हैं, मग़र फिर भी उसे दवा नहीं मिल सकेगी। ऐसी ही हालत है हमारी यहाँ बड़े प्रमाण में। पैसे के कारण नहीं बल्कि हमारे अज्ञान के कारण। हम तक योग्य ज्ञान न दिया गया होने के कारण। क्योंकि एक बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि लोगों को अज्ञान में रखने पर उनपर हु़कूमत की जा सकती है। अनेकों को, जो जानकार रहते हैं, उन्हें डर लगता है कि मैंने यह ज्ञान उनके सामने ज़ाहिर कर दिया तो मुझे कौन पूछेगा? कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं है। हर एक का भला हो यह उस माँ की इच्च्छा है। क्या उसने किस पर स्टॅम्प मारा है? नहीं। फिर हम लोग क्यों मारें? उसका बेटा क्या कभी स्टँप मारता है? नहीं मारता। आज इस भावना के साथ हमें देखना है कि यह कैसे घटित होता है? और यह ‘श्रीश्वासम्’ हम तक कैसे आ पहुँचता है? और हमें किस तरह ग्रहण करना चाहिए?

तो इस ‘श्रीश्वासम्’ से क्या होता है, यह हमें देखना है। इस ‘श्रीश्वासम्’ में जो कुछ होगा वह मैं सबसे अन्त में समझाने वाला हूँ। लेकिन इससे क्या होता है? तो जो लिख रहे हैं वे ठीक से लिख लें। क्या क्या बातें..... तो 12 बातों पर उपाय होता है, यह ध्यान में रखना। 12 मार्गों से 12 बातों पर उपाय होता है। क्योंकि 12 आदित्य हैं। और मैंने क्या कहा? यह त्रिविक्रम अदिति का पुत्र होने के कारण आदित्य ही है। आदित्य यानी केवल सूर्य इस नाम से नहीं। सूर्य का आदित्य यह एक नाम है। मग़र आदित्य का अर्थ सूर्य नहीं है। आदित्य यानी अदिति का पुत्र। यानी आदिमाता के मूल रूप का पुत्र। तो इससे क्या अच्छा होता है? तो

1)     Dis-ease (यानी व्याधि, सभी प्रकार की व्याधियाँ)

2)     Dis-comfort (यानी पीड़ा, सभी प्रकार की पीड़ाओं को दूर करने का सामर्थ्य इस गुह्यसूक्त में है। इस हीलिंग कोड में है।)

3)     Dis-couragement (यानी निराशा, उत्साहभंग, साहसहीनता का नाश इससे हो सकता है।)

4)     Des-pair (यानी उम्मीद हार जाना, भग्न-आशा स्थिति को प्राप्त होना, आशा का पूर्ण नाश हो चुका होना।)

5)     Depression (यानी खिन्नता, न्यूनता, मंदी या उदासपन, औदासिन्य नहीं, उदासपन।)

6)     Fear (यानी भय)

7)     Weakness (यानी दुर्बलता, यह महज़ शारीरिक Weakness नहीं, बल्कि सभी प्रकार की Weakness यह ध्यान में रखना।)

8)     Deficiency (यानी कमी, हम कहते हैं ना कि उस व्यक्ति में विटॅमिन Deficiency है यानी विटॅमिन की कमी है, जो दुरुस्त की जा सकती है।)

9)     Unrest & Trouble (यानी अशान्ति और तकलीफ़, ये दोनों भी जुड़वा हैं, ये इकट्ठा ही रहते हैं।)

10)    Grief (यानी शोक)

11)    Conflict (यानी संघर्ष)

12)    Feebleness (यानी कमज़ोरपन)

 और इन सबके लिए..... इनके लिए हीलिंग है जो इस गुह्यसूक्त में से हर एक को मिल सकेगा, यह ध्यान में रखना। जो इसका उपयोग करना चाहेगा उसे। यह किस तरह मिल सकता है, यह अब हमें देखना है। इससे क्या मिलेगा यह हमने देखा। अब यह कैसे मिलेगा, यह देखना है। तो पहले हमें देखना चाहिए कि आदिमाता की शक्ति, ऊर्जा इस विश्‍व में हर एक में...... हवा में, प्रत्येक पदार्थ में, औषधि में, कृति में, विचारों में जो भरी हुई है, वह जो हीलिंग पॉवर है, उसे हम कहते हैं- ‘अरुला’, यह हीलिंग पॉवर यानी ‘अरुला’- Arula। ‘अरुल’ यह शब्द तमिल भाषा में है और उसका अर्थ भी वही है- ‘Grace’ । ‘अरुला’ यानी Grace संध्या भाषा में। यह संस्कृत के पहले बोली जानेवाली भाषा थी, जो आज केवल हिमालयीन योगी बोलते हैं। ‘अरुला’ यानी ‘द हीलिंग पॉवर’। तो यह हमारे पास कैसे आती है? तो इसे माँ ने ही बनाया है। लेकिन यह पॉवर, यह हीलिंग पॉवर जो है, यह हीलिंग ऊर्जा जो है, यह निरोगीकरण ऊर्जा है, यह मानव को हनुमानजी से प्राप्त होती है, महाप्राण से। यानी माँ के द्वारा निर्माण की गयी यह ऊर्जा, आदिमाता ने, जो उसका ज्येष्ठ पुत्र महाप्राण है, यानी हनुमानजी हैं, वे ही केवल हमारे शरीर के सप्त चक्र हैं, उन सप्त चक्रों को प्रदान कर सकते हैं। एक बात हमारी समझ में आ गयी कि वातावरणात में सब जगह यह हीलिंग पॉवर है, ‘अरुला’ है। मग़र उसे हमारे शरीर में लाने का काम कौन करता है? हनुमानजी यानी महाप्राण। और हमारे सप्त चक्रों में जहाँ ज़रूरत है वहाँ इसकी आपूर्ति कैसे करनी है, यह हनुमानजी भली भाँति जानते हैं। वे महाप्राण हैं। ओके? हनुमानजी के बारे में वचन ही क्या कहा गया है सुंदरकांड में? ‘उमा न कछु कपि कै अधिकाई, प्रभुप्रताप जो काल ही खाई’॥ शिवशंकरजी ही उमाजी से कह रहे हैं कि उमा! हनुमानजी का सामर्थ्य अपरंपार है। वे काल को भी निगल सकते हैं। ‘काळानि काळरुद्रानि देखता कापती भये। ब्रह्मांडाभोवते वेढे वज्रपुच्छे करू शके। तयासी तुळणा कैची ब्रह्मांडी पाहता नसे। (कालाग्नि और कालरुद्राग्नि जिन्हें देखकर काँपते हैं, जो वज्र-पूँछ के अग्र से ब्रह्माण्ड को घेर लेते हैं, उन हनुमानजी की तुलना ब्रह्माण्ड में भला किस के साथ हो सकती है, ऐसा सन्त समर्थ रामदास स्वामीजी कहते हैं।) ऐसे हैं ये हनुमानजी। उनकी पूँछ का अग्र यदि ब्रह्माण्ड को घेर सकता है, वहाँ हमारे सात चक्रों की भला क्या बात है! यह हीलिंग पॉवर वे बाहर के वातावरण से, सारे ब्रह्मांड से, जहाँ जहाँ से आवश्यक है वहाँ से, सितारों से, ग्रहों से, वनस्पतियों से, भूगर्भ से, नदियों से, सागरों से, वनों से, कहीं से भी। यह सारी एनर्जी आकर्षित करके उस ऊर्जा को हमारे सप्त चक्रों में ले आने का कार्य कौन करता है? हनुमानजी करते हैं। ध्यान में रखिए। हनुमानजी ये उस ऊर्जा के प्रवाह हैं। महाप्राण यानी क्या? माँ की शुभ ऊर्जा का प्रवाह। माँ की ऊर्जा शुभ ही है। माँ की ऊर्जा का शुभ प्रवाह यानी हमारे लिए यहाँ हनुमानजी है। ठीक है? और फिर? एक बार इन सप्त चक्रों में यह प्रवाह आने के बाद हमारे शरीर में जहाँ जहाँ जो बीमारी है, जहाँ व्याधि है, जहाँ प्रॉब्लेम है, वहाँ ठीक से पहुँचाने का काम हमारे शरीर की नाडियाँ करती हैं। हमारे शरीर में 72000 नाडियाँ हैं। नाडियाँ यानी ब्लड वेसल्स नहीं। नाडियाँ यानी नर्व्हज्। तो उनमें..... क्योंकि प्राय: नाडी का अर्थ पल्स लिया जाता है। यहाँ संस्कृत में, वेदों में नाडी यह नर्व्हज् इस अर्थ में ली गयी है। नर्व्ह सेल्स यानी ब्रेन सेल्स- ये कम से कम 72000 हैं- प्रमुख। तो उनमें से यह प्रवाहित किया जायेगा ना? एनर्जी, सारी एनर्जी अन्ननलिका में से नहीं जायेगी, रक्तवाहिनी में से नहीं जायेगा। फिर उस एनर्जी को बहकर ले जाने का काम ये त्रिविक्रम करते हैं। एक बार हनुमानजी इस ऊर्जा को शरीर में ले आते हैं, तब उस अरुला को ये त्रिविक्रम, अपनी अपनी उचित जगह, योग्य कोशिकाओं में, उचित प्रमाण में प्रदान करने का काम और उस उस चक्र के साथ, उस उस इन्द्रिय के साथ जोड़ने का काम, हमारी उस उस बाह्य परिस्थिति को भी उसके द्वारा जोड़ने का काम ये त्रिविक्रम करते हैं। और इसीलिए उसे ‘शुभ-स्पंदन-वाहक-प्रणेता’ कहते हैं। ओके? और यह काम वे कैसे करते हैं? तो वह हमें देखना है।

माँ का दर्शन सबने किया ही है। कितनी सुन्दर दिखती है देखिए! इस रूप को कभी भूलना मत बच्चों! सदैव उसका चेहरा आँखों के सामने ले आना, आँखों को आँखों के सामने ले आना, फिर सब कुछ कैसे सुन्दर हो जाता है! पहली स्लाइड दिखाओ। हमारा यह हाथ है ना, उसमें पंचमहाभूत हैं। ठीक? तो हर एक ऊँगली है ना, दाहिना हाथ हो या बायाँ हाथ, यह हर एक ऊँगली किस महाभूत से जुड़ी हुई है, यह हमारी समझ में आ जायेगा। छोटी ऊँगली है ना, वह जल महाभूत के साथ जुड़ी है। फिर रिंग फिंगर यानी अनामिका है ना, वह पृथ्वीतत्व से जुड़ी है। मध्यमा यानी बीचवाली ऊँगली आकाशतत्व से जुड़ी है। तर्जनी यानी इंडेक्स फिंगर वायुतत्व से जुड़ी है, वहीं हमारा अँगूठा यानी थंब यह अग्नि तत्त्व से जुड़ा है। इसका अर्थ क्या है? तो इस बात का कुछ तो संबंध है इन तत्त्वों के साथ। इन बातों का मिलन कराना यह क्या होता है? यह भी हमें आगे चलकर देखना है। फिलहाल स़िर्फ इतना ही देखना है।

नेक्स्ट..... चक्र-घटक। तो मूलाधार चक्र का संबंध किस महाभूत से है? पृथ्वी महाभूत से और वहाँ का राक्षस कौन है यानी उस चक्र का स्वास्थ्य बिगाड़नेवाली बात क्या है? तो भय। मैंने उसे राक्षस कहा वह तकलीफ़ देनेवाली बात इस अर्थ में। राक्षस का मतलब वास्तविक रावण जैसा राक्षस ऐसा मत लेना। मूलाधार चक्र में द्रव्य है पृथ्वी...... एलिमेंट..... तत्त्व पृथ्वी है। और वहाँ खराबी किस कारण से होती है? भय के कारण। स्वाधिष्ठान चक्र में द्रव्य जल है। ओके? और वहाँ राक्षस कौनसा है? गिल्ट...... यानी अपराधीपन की भावना। अपराधीपन की भावना के कारण स्वाधिष्ठान चक्र का नुक़सान होता है। आ गयी बात समझ में? फिर है मणिपूर चक्र यानी परावाणी का स्थान। माँ का स्थान। उसका द्रव्य है अग्नि। वहाँ असन्तुलन क्यों होता है? तो अप्रतिष्ठा, शरम, लांछन के कारण। ओके? यानी हम जिसे शेम कहते हैं वह। इस अप्रतिष्ठा के कारण, शरम के कारण, लांछन के कारण मणिपुर चक्र में खराबी हो जाती है। अनाहत चक्र में वायुतत्व है। वहाँ प्रॉब्लेम किस कारण से होती है? तो शोक और दुख के कारण अनाहत चक्र खराब हो जाता है। विशुद्ध चक्र जो यहाँ है, उसका द्रव्य है ध्वनि। भगवान से झूठ बोलने के कारण विशुद्ध चक्र खराब हो जाता है। और विशुद्ध चक्र जो है, वह विशुद्ध चक्र मानव की सारी हेल्थ की प्रमुख बात है, यह ध्यान में रखिए। इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि भगवान के साथ कभी भी झूठ मत बोलना। यह भी बताया गया है कि तुम यदि हर रोज़ राम से मिलते हो, राम-लक्ष्मण से मिलते हो, मग़र फिर भी राम की तसबीर से कहोगे, तो वह ग़लत है। यह गलत रास्ता है। और अहम बात क्या है? बहुत बार क्या होता है कि इन्सान को चोरी पकड़े जाने का दुख होता है,वैसा नहीं होना चाहिए। गलती करने का दुख होना चाहिए। मग़र मैं निन्न्यानवें प्रतिशत देखता हूँ कि मानव को ग़लती करने का दुख नहीं होता है, बल्कि वह सबसे, यहाँ तक कि भगवान से भी ग़लती छिपाने की ही कोशिश करता है। नहीं नहीं। ‘मेरा इसमें कोई भी क़सूर नहीं है’ यह कह देते हैं। अरे, किसे बता रहे हो तुम? तुम्हारे मन से कह रहे हो, मग़र तुम्हारे मन को आख़िर वे भली भाँति जानते है, यह ध्यान में रखना। असत्य यानी सामान्य मानवों के साथ तुम जो कुछ बोलते हो वह नहीं , बल्कि भगवान के साथ जो तुम झूठा बर्ताव करते हो, वह असत्य विशुद्ध चक्र की हानि करता है। और फिर आसपास का हर एक व्यक्ति तुम्हारा दुश्मन बन जाता है। तुम्हारा दोस्त भी दुश्मन बन जाता है, तुम्हारा पड़ोसी भी दुश्मन बन जाता है, तुम्हारे ऑफिस के लोग भी दुश्मन बन जाते हैं, तुम्हारे सगेसंबंधी भी दुश्मन बन जाते हैं, तुम्हारा शरीर भी दुश्मन बन जाता है यानी तुम्हारे शरीर के घटक जिन्हें कहते हैं, ‘ऑटो इम्युन डिसॉर्डर्स्’ यानी अपना शरीर अपने शरीर को खाने लगता है, यह भी इसमें से ही उद्भवित होता है, विशुद्ध चक्र खराब हो जाने कारण। फिर आज्ञा चक्र, जिसका द्रव्य है प्रकाश। और यहाँ कौन सा राक्षस काम करता है? तो भ्रम। हम भ्रम में रहते हैं..... अरे, मैं क्या कर सकता हूँ यार? हमें भगवान बिगवान की ज़रूरत नहीं है। बुरा बर्ताव किया तो क्या हुआ? कुछ नहीं बिगड़ता। मेरा किया भगवान कहाँ समझ में आयेगा? भगवान को कहाँ कुछ समझता है? ये तो सब हायर लेव्हल की बातें हैं। ये सब बातें आज्ञाचक्र में असंतुलन करनेवाली बातें हैं। और आज्ञाचक्र यह तुम्हारा अभ्युदय करनेवाला चक्र है। सभी प्रकार के विकास रुक जाते हैं...... एक पल में। फिर सहस्रार चक्र का द्रव्य है भाव। भाव यही देव है। और वहाँ राक्षस कौन सा है? तो आसक्ति। यानी भगवान की मूर्ति घर ले आये हैं, गणेशजी की मूर्ति और मैं जाकर चुपचाप फिश खाकर आता हूँ, किसकी समझ में आनेवाला है? घर में नहीं पकाया तो हो गया। यह जो बात है ना, यह है आसक्ति। शराब नहीं पीनी है। बापु ने मना किया है मग़र फिर भी शराब पी लेना, यह आसक्ति है। आ गयी बात समझ में? यह आसक्ति बुरी है। मीठा खाने का मन करता है। अच्छा है। मग़र वज़न 400 किलो हो गया है, मग़र फिर भी मीठा 40 किलो खा रहे हैं और फिर उसे 500 किलो करना यह आसक्ति है। समझ गये? बापु ने कहा है कि आठ आठ घंटे मत सोना, ऐसा करना अच्छा नहीं है। मग़र फिर भी उस बिछाने की आसक्ति है। उसे त्यागना चाहिए। आ गयी बात समझ में?

तो ये जो चक्र हैं, ये हमारा सारा स्वास्थ्य सँभालते हैं। इन चक्रों में ही वे हनुमानजी आते हैं। और हनुमानजी की वह ऊर्जा वहाँ आ जाते ही उस उस राक्षस का नाश हो जाता है। जिस जिस चक्र पर राक्षस ने हमला किया है, उसका नाश हो जाता है। फिर वहाँ से एनर्जी रिलीज़ होती है, जो हिस्सा बीमार हुआ है, शरीर का, तुम्हारे प्रभामंडल का या जीवन का, वहाँ तक उस ऊर्जा को पहुँचाने का काम वे त्रिविक्रम करते हैं। नेक्स्ट स्लाइड। ये सप्त चक्र हैं। यह स़िर्फ देखिए। नेक्स्ट स्लाइड। यह सहस्रार चक्र है। नेक्स्ट। यह आज्ञाचक्र है, जिसका बीज है- ‘उँ’। फिर ‘हँ’ यानी विशुद्ध चक्र है। नेक्स्ट। फिर अनाहत चक्र है। फिर मणिपुर चक्र है। नेक्स्ट। ‘रँ’ बीज है उसका। ‘रँ’ यानी अग्नि बीज है मणिपुर का। फिर ‘वँ’ यह स्वाधिष्ठान चक्र है यानी जल से संबंधित चक्र है। और ‘लँ’ यह पृथ्वीतत्व से जुड़ा चक्र है।

ये जो सप्त चक्र हैं, उन्हें हमने संक्षेप में देखा। बुकलेट में यह सब तुम्हें मिल जायेगा। हमारे ग्रन्थ में मैंने सारे चक्रों के बारे में समझाया है। तो हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि माँ ने यह ऊर्जा, जो विश्‍व में भरकर रखी है, जो शुभ ऊर्जा का प्रवाह है, वे महाप्राण हनुमानजी हमारे देह में आते हैं। वे आयेंगे कैसे? हमारा यह जो सूक्त है यानी हीलिंग कोड है, ‘श्रीश्वासम्’ है, वह ‘श्रीश्वासम्’ करते समय अपने आप वे हनुमानजी यानी शक्ति का शुभ प्रवाह, आ गया ध्यान में, यानी हीलिंग पॉवर हमारे सप्त चक्रों में आयेगी, वहाँ के राक्षस का नाश करेगी कि तुरंत वह त्रिविक्रम सक्रिय होकर फिर आड़े आनेवाले बाकी के पिशाच, दुर्गुण हैं, पिशाच यानी भूत नहीं समझना चाहिए, बल्कि जो बुरी बातें आड़े आती हैं, फिर उनका नाम कभी कॅन्सर होगा, कभी हार्ट डिसीज़ होगा, कभी सिरॉसिस होगा या कभी दरिद्रता होगा, कभी उसका नाम नपुसंकत्व होगा या कभी कमज़ोरी होगा, कभी पागलपन होगा या कभी तनाव होगा, कुछ भी होगा, उसका नाश करने का काम ये त्रिविक्रम अपनी ‘अरुला’ शक्ति से करते हैं। और इसीलिए इस त्रिविक्रम और हनुमानजी को आवाहन करने की ताकत वैदिक मन्त्रों से मिलती है, यज्ञों से मिलती है। लेकिन निरंतर यज्ञ करना, उन नियमों का पालन करना, उतना समय आज के युग में नहीं है। ठीक है? और इसीलिए यह गुह्यसूक्तम् हमने बनाया है। यह गुह्यसूक्तम् एक सी डी में होगा। वह सी डी या कॅसेट, जो कुछ भी होगी, उसे सुनते समय, उस गुह्यसूक्त को सुनते समय, शान्ति से, मग़र ऐसे कोई फिश मार्केट में चल रहा है, कोई मोलभाव कर रहा है और कानों से सुन रहा है, तो इससे कोई लाभ नहीं होगा। या पतिपत्नी झगड़ रहे हैं और यह लगाया, तो उसका कोई लाभ नहीं। उतने समय तक, बहुत थोड़ा सा समय है, ज़्यादा समय नहीं लगता, वह सुनते समय आँखें बंद करके, शान्ति से, तुम आलथी पालथी लगाकर बैठ जाओ, कुर्सी में बैठ जाओ, पलंग पर लेटे हो, या बीमार होने के कारण अस्पताल में भरती हो, कोई मनुष्य, कोई हर्ज़ नहीं है। लेकिन वह सुनते समय तुम, श्‍वास-उच्छ्वास अपने आप होगा..... तुम्हें ज़बरदस्ती से श्वास, दीर्घ श्वसन करो, एक नासापुट बन्द कर लो, फिर दूसरा नासापुट बन्द कर लो, फिर इस तरह ज़बरन् रोककर रख दो, इस तरह का कुछ भी नहीं करना है। तो उस गुह्यसूक्तम् को सुनते समय तुम्हारी जो साँसें अपने आप चलेंगी, उसके ज़रिये हनुमानजी का शुभ ऊर्जा प्रवाह भीतर प्रविष्ट होकर सप्तचक्रों में जहाँ आवश्यकता है, वहाँ उचित रूप में पहुँचायेंगे। वहाँ पहुँचते ही उस सूक्त की दूसरी दो पंक्तियों से क्या होगा? तो वह त्रिविक्रम उन सब को लेकर जाने वाला है। इतनी ताकत है इस गुह्यसूक्त में। आ गयी बात समझ में? अरे, ज़ोर से तालियाँ बजाओ! अब तुम कहोगे कि बापु, भला इतनी ताकत इस गुह्यसूक्त में क्यों है? केवल आप कहते हो इसलिए? नहीं। मैं कौन? मैंने पहले ही कहा है, ग्रन्थ में साफ़ साफ़ बताया है। मैं किसी का भी अवतार नहीं हूँ। मुझे चमत्कार करना नहीं आता। आ गयी बात समझ में? देखिए, मुझे भी तुम्हारी तरह दो हाथ, दो पैर हैं, बाकी क्या? सब कुछ चष्मा बिष्मा सब कुछ है। ठीक है?

तो सबसे अहम बात है कि हम स़िर्फ थोड़ा बहुत सोचते हैं कि व्हाय शुड दे डू इट फॉर अस? वह आदिमाता, हनुमानजी, वह त्रिविक्रम, उसकी वह हीलिंग पॉवर ‘अरुला’, वह अनपगामिनी लक्ष्मी, वह महाविष्णु, वह परमशिव, वह अन्नपूर्णा, वह प्रजापतिब्रह्मा, वह सरस्वती, वह किरातरुद्र, वह शिवगंगागौरी, इन सब को क्या ज़रूरत पड़ी है हमारे लिए इतना आसान बनकर आने की? वे आसान ही हैं, उन्हें अनेक दांभिकों ने कठिन बनाकर रखा है और हम हमारी मूर्खता से कठिन बनाकर रखा है। देखिए, साईनाथजी ने हमें बताया है ना! ‘कृतांताच्या दाढेतून, काढीन निजभक्ता ओढून।’ कृतांत यानी कालमृत्यु। ‘कृतांताच्या दाढेतून, काढीन निजभक्ता ओढून, करिता मत्कथांचे श्रवण, रोग निरसन होईल’ (साईनाथजी कहते हैं- कालमृत्यु के जबड़े में से मैं अपने श्रद्धावान को खींचकर निकालूँगा। मेरी कथाओं का श्रवण करने से रोगनिरसन होगा।) क्या बाबा का वचन झूठ है? क्या मेरा बाबा झूठा है? नहीं। फिर शायद मैं झूठा हूँ। मैं यानी जो मनुष्य है वह। कि बाबा के वचन की या तो मुझे जानकारी नहीं है, उचित समय पर याद नहीं आता या फिर याद आ भी जाता है तब भी उसपर मेरा भरोसा नहीं है। और वहाँ ही हमारे श्रीसाईसच्चरित की कुछ ओवियाँ हेमाडपंत ने जो दी हैं, वे बहुत ही उपयोगी हैं और वे कौन सी हैं?

 1)   केवळ बाबांचा शब्द प्रमाण । तेचि औषध रामबाण ।

      एकदा कृष्ण श्वान भक्षिता दध्योदन । जाहले निवारण हिमज्वराचे ।

(केवल साईनाथजी का शब्द ही प्रमाण है। वही रामबाण औषधि है। एक बार कृष्ण श्‍वान (काले कुत्ते) के द्वारा दही-चावल खाये जाने पर हिमज्वर का निवारण हो गया।)

 2)    जुलाबावर हे काय औषध । परी औषध तो संतांचा शब्द ।

       देतील तो जो मानी प्रसाद । तया न अगद आणीक ॥

(दस्त पर यह कैसी दवा? लेकिन सन्तों का शब्द ही औषधि है। साईनाथजी जो कुछ देते हैं उसे प्रसाद माननेवाले के लिए अन्य किसी औषधि की ज़रूरत नहीं है।)

मग़र वह किसके लिए? तो जो यह मानता है कि इस साई का शब्द यही औषधि है। गॉड्स वर्ड हील्स। भगवान का शब्द ही तुम्हें निरोगी बनाता है।

 3)    सांधे धरले शरीराचे । स्थळ ते वार्‍यापाऊसाचे ।

      ओल तो तेथे ऐशापरीचे । औषध बाबांचे वचन की।

(शरीर के जोड़ों में दर्द था। वह जगह हवा-बारिश से प्रभावित थी और वह जगह गीली भी थी। मग़र साईबाबा का वचन यही औषधि थी।)

 दोनों की कथाओं में ये ऐसी ओवियाँ आती हैं। भीमाजी पाटिल और अमीर शक्कर की कथा में। ओले तो तेथे ऐशा परिचे - जोड़ों के जकड़ जाने की स्थिति में गीली ज़मीन पर रहने से यक़ीनन ही जोड़ जकड़ जायेंगे। परि औषध बाबांचे वचन- लेकिन औषधि है बाबा का वचन। यस!

 4)    तुम्ही जोर काढू लागा । दुधाची काळजी सर्वस्वी त्यागा ।

       वाटी घेऊनि उभाच मी मागा । पृष्ठभागा आहे की ।

(तुम लोग अपना पुरुषार्थ करते रहो, फलाशा के चंगुल में मत फँसो, तुम्हें देने के लिए उचित फल अपने हाथ में लेकर मैं तुम्हारे पीछे खड़ा ही हूँ।)

लेकिन तुम कहोगे, हमारी इच्छा क्या होती है? बाबा ज़ोर लगाये और मैं दूध पी लूँ। यह नहीं होगा।

 5)     ‘साई साई’ नित्य म्हणाल । सात समुद्र करीन न्याहाल ।

ये सात समुद्र यानी क्या? ये सप्त चक्र, यह ध्यान में रखना। उन्हें ही क्रॉस करना हमारे लिए समुद्र को पार करने जैसा मुश्किल होता है।

‘साई साई’ नित्य म्हणाल । सात समुद्र करीन न्याहाल ।

या बोला विश्वास ठेवाल । पावाल कल्याण निश्चयें ।

 अरे, क्या स्ट्राँगली मेरे बाबा बता रहे हैं मुझे बताइए। फिर ये शब्द हमें याद क्यों नहीं आते? पहले डर क्यों याद आता है हमें? कुछ हो गया...... बेटी की प्रेग्नन्सी...... डिलिव्हरी हुई तो पहले भय! अरे, इन शब्दों को याद करो ना! ये मेरे भगवान के शब्द हैं। और भगवान का शब्द यदि झूठ हो तो तो वह भगवान ही नहीं है। बाबा के शब्द झूठ हो ही नहीं सकते। वे झूठ साबित हो गये तो इसका अर्थ यह है कि मेरी कुछ गलती है। हमें अब इन गलतियों के ऊपर उठना चाहिए। कितनी गलतियाँ की हैं जीवन में? भरपूर कीं। अब रुकना होगा कहीं तो। लेट अस स्टॉप इट। हम विश्वास करना सीखेंगे। मैंने तुमसे क्या कहा? यू आर नॉट जज्ड बाय युअर परफॉर्मन्स, यू आर ऑलवेज़ बीईंग जज्ड बाय युअर फेथ। तुम्हारा विश्‍वास। मग़र यहाँ विश्‍वास के बारे में मुझे कुछ कहना है। देखिए, समझ लीजिए कि कोई ‘द’ नाम का देश है और ‘न’ नाम का देश है। दोनों की आपस में दोस्ती है। हमारे द नाम के देश का दोस्त है न नाम का देश। और हमारा ‘इ’ नाम के देश के साथ बैर है। तो इ की सेना हमला करने आ रही है यह जानकारी मिल जाते ही द नाम के हमारे देश का विश्‍वास है, फेथ है कि मेरा जो न नाम का मित्र-देश है, वह सैनिक भेजने ही वाला है। यह फेथ हो गया। मग़र जब वह न का प्राइम मिनिस्टर फोन करके यह बताता है कि मैंने सेना भेज दी है, मेरे गुप्तचर जानकारी देते हैं कि सेना निकल चुकी है, पहुँच रही है, तो इसे क्या कहेंगे? यह विश्वास नहीं, बल्कि विश्‍वास से भी परे का विश्‍वास सच साबित हो गया। यानी ‘ज्ञान’। वेद कहते हैं यह कोई बड़ी बात नहीं है। मुझे जो विश्‍वास है, वह सच है इसकी जानकारी प्राप्त करना, इसका अनुभव करना यानी ज्ञान। मेरा दोस्त मेरी सहायता करेगा यह है विश्‍वास, यह है फेथ। लेकिन मेरे दोस्त ने मदद भेज दी है यह है ज्ञान। मेरे प्रभु मेरे पीछे खड़े ही हैं, चारों तरफ़ यह विश्‍वास है, मग़र उसके बारे में यक़ीन होना कि वे निकले ही हैं आने के लिए और व़क्त आने पर वे इंटरफियर करने ही वाले हैं, यह है ज्ञान। ज्ञान यानी बड़ा ब्रह्मज्ञान वगैरा कुछ नहीं। उसे लपेटकर रख दीजिए। तिली जलाकर चूल्हे में जलाने के लायक भी नहीं है वह बात। आ गयी बात समझ में। जिन्हें प्राप्त करना हो वे अवश्य उसका पांडित्य प्राप्त कर लें। मेरी समझ में नहीं आता। सारे पंडितों को मेरा नमस्कार। हम सीधे सादे लोग हैं। हम हमार जीवन सुखी बनाना चाहते हैं। ठीक ऐ? इसलिए...... फेथ ज़रूरी ही है। यू आर जज्ड बाय युअर फेथ, नॉट बाय युअर परफॉर्मन्स। मगर वह फेथ भी कैसा होना चाहिए? सौ आने फेथ। करेंगे प्रभु मदद...... ऐसा नहीं। भगवान मेरी सहायता कर ही रहे हैं। मेरी समझ में न आ रहा हो, मग़र कर ही रहे हैं यह है ज्ञान और हर रोज़ तुम यदि अनुभव करते रहोगे ना कि उसने आज कहाँ कहाँ मेरी मदद की तो वह हो गया नॉलेज-ज्ञान। यह फेथ ही तुम्हारा नॉलेज बन जायेगा कि ईश्‍वर मदद करते ही हैं। यह नॉलेज हमें प्राप्त करना चाहिए क्योंकि वे तुम्हारी सहायता करने को आतुर ही हैं। गीता में क्या कहा है कृष्ण ने? ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥

मैं ही सब कुछ हूँ यह मानकर जो मेरी प्रेमपूर्वक भक्ति करता है, फलाना बड़ी भक्ति करता है, छोटी भक्ति करता है, यह नहीं कहा है। 108 बार जाप करता है या 24 बार करता है, यह भी नहीं कहा है। ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां... नित्य... मैं नित्य उनकी सारी बातों की रक्षा करता रहता हूँ...... आय गो ऑन क्युरिंग देम कन्टिन्युअसली..... यस, आय अ‍ॅम देअर..... आय अ‍ॅम देअर डॉक्टर फॉर एव्हर..... और ये ही शब्द किसके हैं? (अक्कलकोट के) श्रीस्वामीसमर्थ के देहत्याग करते समय के आख़िरी शब्द....... इसी श्‍लोक का उन्होंने भी उच्चारण किया...... ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ठीक है? साईबाबा ने वही कहा है। स्वामीसमर्थ वही बता रहे हैं। भगवान कृष्ण हमें वही बता रहे हैं। उन्होंने यह अभिवचन क्या किसी तपस्या को दिया है? किसी तपस्वी के द्वारा की गयी तपस्या के बाद क्या ये शब्द उनके मुँह से बाहर निकले हैं? नहीं। तुम्हारे और मेरे जैसे सामान्य मानव के लिए ये शब्द आये हैं और भगवान कभी भी बदलते नहीं इस बात की जानकारी हमें होनी चाहिए। यदि भगवान सत्ययुग में वैसे थे, द्वापारयुग में वैसे थे, त्रेतायुग में वैसे थे, तो आज कलियुग में भी वैसे ही होंगे और वैसे ही हैं, इसका मुझे यक़ीन होना चाहिए। साईबाबा ने यदि गंभीर बीमारियों में से भक्तों को बाहर निकाला है, दरिद्रता में से बाहर निकाला है, दुर्बलता में से बाहर निकाला है, तो वे मुझे क्यों नहीं निकालेंगे? क्या मैं उनके लिए सौतेला हूँ? यह विचार करना चाहिए। हम दत्तबावनी पढ़ते हैं ना! दत्तमहाराज ने कितनों पर कृपा की है! ‘वंध्या भेंस दूझवी देव’। वह भैंस बूढ़ी हो चुकी थी, दूध नहीं दे रही थी। उसके बच्चे भी नहीं हो रहे थे। मगर फिर भी उसमें दूध प्रकट किया ना उन्होंने! ठीक है। यह ध्यान में रखना चाहिए हमें। इसलिए हमें मान लेना चाहिए कि प्रभु हमसे कुछ तो लेंगेम हम उसे कुछ तो देंगे और उसके बदले में प्रभु हमसे कुछ तो लेंगे, हम उन्हें कुछ तो देंगे और उसके बदले में हमें वापस मिलेगा, ऐसा नहीं है। वे दोनों हाथों से देने को तैयार हैं और जिस तरह वे सत्ययुग में दे रहे थे, त्रेतायुग में दे रहे थे, द्वापारयुग में दे रहे थे, वैसे ही वे कलियुग में अब भी मुझे देने वाले हैं, यह विश्वास होना चाहिए। फर्स्ट स्टार्ट बिलिव्हिंग हिम...... कि वे मुझे क्या नहीं दे सकते? वे मुझे सब कुछ दे सकते हैं। स़िर्फ उचित समय और उचित साधन के बारे में वे जानते हैं, यह मैं नहीं जानता।

तुम्हें एक सच्ची बात बताता हूँ। एक बार एक परिचित मरीज़ को, उसका हाथ दर्द कर रहा था, कहा वॉलिनी लगाओ। अगले दिन मैं और सुचितदादा कन्सल्टिंग जा रहे थे, तो राह में उसकी पत्नी से मुलाक़ात हो गयी। ‘क्या असरदार दवा दी आपने डॉक्टरसाहब हाथ पर लगाने के लिए! तुरंत दर्द ठीक हो गया। आज सुबह इनकी पाइल्स दुखने लगीं, तो मैंने कहा कि लगाएइ उसपर वह मलहम। मैंने पूछा, ‘‘कहाँ है?’’ उसने कहा, ‘‘नहीं, अभी अभी गये शौचालय में!’’ मैंने दरवाज़ा खटखटाया, कहा, ‘‘रुक जाओ।’’ क्योंकि वॉलिनी यदि वहाँ लगायी गयी होती, तो लेने के देने पड़ जाते, चींख चिल्लाकर वह मरीज़ हैरान हो जाता। उस महिला को वास्तव में यह ज्ञात नहीं था। उसे लगा कि यहाँ का दर्द ख़त्म हो गया तो वहाँ का दर्द भी ख़त्म हो जायेगा। लेकिन वहाँ उस दवा को लगाना तकलीफ़देह साबित हो जाता। मग़र मैं सही समय पर पहुँच गया और मैं हमेशा ही समय पर ही पहुँचता हूँ। मैं कभी भी लेट नहीं पहुँ्चता। तो इस पर ध्यान देना चाहिए कि कहाँ कौन सी दवा लगानी है, यह जिस तरह डॉक्टर जानता है, उसी तरह भगवान भी यह जानता है कि कब दवा देनी चाहिए। हमें लगता है कि एकदम चार डोस अ‍ॅन्टिबायोटिक्स के दे दिये जाये तो कितना अच्छा होगा! झट् से बॅक्टेरियाज़ मर जायेंगे। अरे, बॅक्टेरियाज़ नहीं मरेंगे, तुम्हारी कोशिकाएँ ही मर जायेंगी, क्योंकि डॉक्टर जानता है कि दवा ठीक सिक्स अव्हरली देनी है, एट अव्हरली देनी है या टेन अव्हरली देनी है। यह बात डॉक्टर पर छोड़ दीजिए। अपना दिमाग़ मत लगाइए। सही है या ग़लत? मान लीजिए कि किसी की बायपास चल रही हो और वह डॉक्टर से कहे कि डॉक्टर, पहले यह वेसल ठीक कीजिए, फिर वह कीजिए, पहले यहाँ से यह प्रविष्ट कीजिए, तो क्या यह मुनासिब होगा? नहीं। वह तुम्हारा काम नहीं है। इसी तरह जो काम उस माँ का है, उस महाप्राण का है, उस त्रिविक्रम का है, वह उन्हें करने दीजिए और वे करने ही वाले हैं। क्यों? बिकॉज ऑफ अव्हर फेथ। हमारे प्यार के कारण और मुख्य रूप से उसकी ग्रेस के कारण, अनकंडिशनल, अनमेरिटेड लव्ह। अनमेरिटेड लव्ह यह सबसे अहम बात है। यानी क्या, तो हमारी औकात न होते हुए भी, हमारी कुव्वत न होते हुए भी हम पर जो कृपा की जाती है, अनकंडिशनल, अनमेरिटेड फेव्हर। ‘ग्रेस’ का ‘अनमेरिटेड फेव्हर’ यह ट्रान्स्लेशन मुझे बहुत अच्छा लगता है। हमारी मेरिट न होते हुए, हमारी क्षमता न होते हुए भी जो हमें मिलता है, हमें जो अनुग्रह मिलता है, दॅट इज ग्रेस और ‘ग्रेस’ उसका नाम है, ‘ग्रेस’ उसका कार्य है और वह भी अनकंडिशनल यानी अपेक्षा (एक्स्पेक्टेशन) कुछ भी नहीं। स़िर्फ एक ही कंडिशन है। एक विश्वास होना चाहिए पूरा....... ठीक ? यह विश्वास चाहिए दोस्तों!

तो यह जो सीडी बनायी जायेगी, उससे हम में विश्वास भी निर्माण होगा, यह बात ध्यान में रखना। विश्वास कम होगा तो विश्वास भी बढ़ेगा। नॉलेज कम होगा तो नॉलेज भी बढ़ेगा। यानी वह हीलिंग कोड क्या करेगा जब तुम उसे सुनोगे तब? तो उन साँसों के साथ, यहाँ महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में रखना, फिर से सब लोग कहेंगे, ‘हरि ॐ’, अरे ज़ोर से बोलो, ‘हरि ॐ, श्रीराम, अंबज्ञ’। क्योंकि हीलिंग कोड एक बार तुम सुनना शुरू करोगे, तब उसे सुनते समय तुम्हारी जो साँसें अपने आप चलती रहेंगी, उसमें से तुम्हारे शरीर में से, तुम जब साँस छोड़ोगे तब तुम्हारे शरीर में रहनेवालीं सारी आधि-व्याधियाँ, दुर्गुण, बुरी एनर्जी, बुरे स्पंदन, बुरी शक्ति, बुरे जीवाणु आदि सब कुछ बाहर निकल जायेगा..... और इन सबका स्वीकार वह मेरी माँ करेगी उसके श्‍वास के रूप में। और फिर वह उसके फेफड़ों में वह दुरुस्त करके, शुद्ध करके अपने उच्छ्वास के रूप में जो हवा वह बाहर छोड़ेगी, जो स्पन्दन बाहर छोड़ेगी, उन्हें हम अपनी साँसों से अन्दर ग्रहण करेंगे। यानी माँ करेगी यह ध्यान में रखना कि इस हीलिंग कोड को हम जब सुनते रहेंगे तब हमारे उच्छ्वास के ज़रिये, एक्झेलेशन के ज़रिये हमारे शरीर में से जो कुछ बुरा है, गंदा है, वह खींच लिया जायेगा और उसमें से वह अपना श्‍वास लेगी, अपने भीतर लेगी और फिर वह और उसका पुत्र मिलकर वह सब शुद्ध करेंगे, क्योंकि उसका पुत्र ही उसका श्‍वास है, उसके लंग्स है। इसलिए वहाँ यह सब शुद्ध हो जायेगा और फिर उसके द्वारा छोड़े गये उच्छ्वास में से, उसके श्‍वास ने हमारी बुरी बातों को अंदर ले लिया, उसके उच्छ्वास में से वह अच्छी बातें बाहर छोड़ेगी, अच्छे स्पंदन, शुभ स्पंदन, शुभ शक्ति, शुभ घटक उन्हें हमें भीतर खींच लेना है। यह होगा। आ गयी बात समझ में? इसीलिए तुम्हें त्रिविक्रम, हनुमानजी और वह आदिमाता, ये तीनों भी तुम्हारे लिए तैयार हैं और यह प्रॉमिस मेरे पास है। यह प्रॉमिस मेरे पास है और इसलिए डेफिनेटली है। आ गयी बात समझ में? यह होने ही वाला है। ज़बरदस्ती से अलग से श्वासोच्छ्वास करने की आवश्यकता नहीं है, यह हमें ठीक से ध्यान में रखना चाहिए और इसका उदाहरण हम मातृवात्सल्य उपनिषद् में देख ही चुके हैं। ठीक है?

मातृवात्सल्य उपनिषद् के 4थे अध्याय में क्या कहा गया है?

हे उत्तम! मानव को दुखी होते देख, रोते देख वृत्र को अत्यधिक आनन्द होता है और इसीलिए वह वृत्र मनुष्य के मन की दुर्वासनाओं को शक्ति प्रदान कर मनुष्य के हाथों पाप करवाते रहता है।

....और इसीलिए मनुष्य की इस स्थिति को जाननेवाले चण्डिकापुत्रों की लड़ाई किसी भी मनुष्य के साथ कभी भी न होकर, किसी भी पापी के साथ भी कभी भी न होकर चण्डिकापुत्रों की लड़ाई सदैव वृत्र के साथ ही होती है और वृत्र को माननेवाले निशाचरों के साथ ही होती है।

....और इसीलिए हे उत्तम! मनःपूर्वक चण्डिकाकुल की भक्ति करनेवाले श्रद्धावानों के लिए चण्डिकापुत्रों का अथक प्रयास चलते रहता हैै।

मनुष्य के देह में होनेवाले इन्द्र का रूपान्तरण इन्द्राग्नि में होने के चिह्नों के बारे में अब सुनो।

1)     उत्कृष्ट स्वास्थ्यसमृद्धता

2)     शरीर एवं मन की स्ङ्गूर्ति और उत्साह, साथ ही थकान और निराशा का अभाव

3)     धैर्यशीलता

4)     उत्कृष्ट एवं तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता

5)     उचित संयम

6)     उदारता

7)     सभी गुणों एवं कार्यों में आदर्श होना।

ये इतने सारे गुणधर्म प्राप्त होते हैं। उसके बाद देखिए। 4थे अध्याय के अन्त में जो श्‍लोक है, जिसे हम चतुर्थ विक्रम कहते हैं।

ॐ आदिमाता पश्‍चात्तात विष्णु: पुरस्तात् रुद्र: उत्तरात्तात त्रिविक्रम: अधरात्तात्।

त्रिविक्रम: न: सुवतु सर्वतातिं शिव: न: रासतां दीर्घं आयु:॥

हमारा सर्वस्व, हमारी अपनी आदिमाता हमारे पीछे खड़ी हैं। महाविष्णु हमारे नेता, अग्रणी मार्गदर्शक इस रूप में हमारे आगे हैं। वरद, अभममुद्राधारी किरातरुद्र हमारे मस्तक पर छत्र धारण कर रहे हैं। हमें आधार देनेवाले, हमारे भार का वहन करनेवाले त्रिविक्रम अधोदिशा से हमें धारण कर रहे हैं।

(सोचिए, कितना प्रेम होगा उस त्रिविक्रम का तुमसे! वह क्या करता है? तुम्हारे लिए वह..... देखिए, हमेशा क्या होता है? जो उच्च व्यक्ति है, सम्माननीय, उसे हम उच्चासन पर बिठाते हैं, पैरों के पास नहीं बिठाते। यह तुम्हारे पैरों के नीचे रहने को तैयार हैं। अंडरस्टँड हिज लव्ह। तुम्हें कंधे पर उठाने के लिए वह तुम्हारा आसन बनने को तैयार है, तुम्हारा रथ बनने को तैयार है, तुम्हारा सारथी बनने को तैयार है। आर यू गेटिंग? हमें आधार देनेवाला, हमारा भार वहन करनेवाला त्रिविक्रम अधोदिशा से हमें धारण कर रहा है।)

त्रिविक्रम ने पूर्व, पश्‍चिम आदि दसों दिशाएँ व्याप्त की हैं और केवल उसपर ही हमारा जीवन निर्भर है। वे परमशिव ही हमारा चारों ओर से, सर्वथा परिपालन करें और हमें दीर्घायु दें।

कितनी सुंदर प्रार्थना है देखिए! अध्याय 7 में जो वाक्य आता है, उसे हमें हमेशा याद रखना चाहिए।

‘अंबज्ञता’ यानी आदिमाता के प्रति श्रद्धावान के मन में रहनेवाली और कभी भी न ढल सकनेवाली असीम कृतज्ञता।

उसी अध्याय में हम अदितिमति की कथा पढ़ते हैं, कश्यप की पत्नी की कथा पढ़ते हैं।

उसकी अंबज्ञता के कारण ही पहले उस ध्वज का वृक्ष बन गया और आगे चलकर उसकी अंबज्ञता के कारण ही वह विशाल वृक्ष उसके लिए साधारण ध्वज के समान हलका हो गया।

हे बालकों, इसीलिए अच्छी तरह जान लो कि अंबज्ञता यही सभी सुखों के पीछे का रहस्य है।

तीनों ही चण्डिकापुत्र सदैव अंबज्ञ रहते हैं।

मैं भी अंबज्ञ ही हूँ और उन्हीं (आदिमाता) की कृपा से अंबज्ञ हूँ।

 जो श्रद्धावान श्रीचण्डिकाकुल के सामने खड़ा रहकर अपनी ग़लतियों और पापों के लिए पश्चात्ताप व्यक्त करता है, उसे चण्डिकापुत्र के माध्यम से आदिमाता क्षमा पहुँचाती ही हैं।

हे मध्यम! मेरी इस माता की क्षमा भी उसी के समान अनन्त है और यह मेरी प्यारी माँ महारणरागिणी होते हुए भी श्रद्धावानों के लिए बहुत ही सीधी-सादी, सरल और भोले अन्तःकरण की है।’

परशुराम क्या कहते हैं, वह समझ लीजिए, मातृवात्सल्य उपनिषद् के अध्याय 9 में -

आदिमाता चण्डिका ने मेरा नामकरण करते समय, मेरे कान में जिन शब्दों का उच्चारण किया था, उन्हें सुनो,

मेरी माँ के शब्द थे

‘‘मेरे बालक, मैं तुमसे निरन्तर प्रेम करती रहती हूँ।’’

(कितने सुन्दर शब्द हैं! इन्हें जिसने सुना है ना, वह कभी भी भूल ही नहीं सकता।)

‘‘मेरे बालक, मैं तुमसे निरन्तर प्रेम करती रहती हूँ।’’

हे मित्रों, यह मेरे द्वारा सुना गया मेरी आदिमाता का प्रथम वाक्य है,

तब उस अर्भकावस्था में मैं बोल नहीं सकता था, केवल सुन सकता था।

और यही तो महत्त्वपूर्ण है।

हे मित्रों, लगातार सुनते रहो, मेरी आदिमाता का यह आद्यवाक्य, उनके लाड़ले बेटे के लिए उच्चारित किया गया,

अर्थात् इस मातृवाक्य का सदैव स्मरण रखना और मनन करते रहना- इसी को ‘सुनना’ कहते हैं।

यही उनका सर्वोत्कृष्ट मन्त्र है

यही उनके लिए सर्वोत्तम आमन्त्रण है

और यही तुम्हारे लिए प्रारब्ध बदलने का सर्वोत्कृष्ट उपाय है।

 परशुराम ने ङ्गिर से पुकारा, ‘‘हे आदिमाता, तुम प्रेमल हो और मैं अंबज्ञ हूँ।’’

और अचंभित कर देनेवाली बात हो गयी। किसी भी मनुष्य के लिए असंभव होनेवाली घटना घटित हुई, उत्तम ने उस पंचम मंगलस्थान वाले मन्दिर में स्थित अक्षमूर्ति में से सभी आयुध धारण की हुईं आदिमाता महिषासुरमर्दिनी को परशुराम की ओर दौड़कर आते हुए देखा।

आदिमाता महिषासुरमर्दिनी ने परशुराम को प्रेम से गले से लगा लिया, परशुराम का माथा चूम लिया और प्रत्मक्ष आदिमाता ने उत्तम और मध्मम से कहा,

‘‘मैं तुम्हारे लिए भी इसी तरह दौड़कर आऊँगी।’’

 फिर पगलों, इस पर ध्यान क्यों नहीं देते? प्रत्येक जगह हमें यह वाक्य ध्यान में क्यों नहीं रहता? कि मेरी माँ ने वचन दिया है उत्तम और मध्यम को और फिर विगत को, जो बहुत ही पापी था, उसे भी सुगत बना ही लिया ना! और उसे क्या प्रॉमिस दिया माँ ने? कि जो कुछ उत्तम और मध्यम को मैंने दिया है, वह सब कुछ तुम्हें भी प्राप्त हो चुका है। फिर तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि यदि ‘एक विश्‍वास होना चाहिए पूरा। कर्ता हर्ता गुरु ऐसा’, तो यह सब यदि हम श्रद्धावान हैं, यानी यह माँ कह रही है- ‘मैं तुम्हारे लिए भी इसी तरह दौड़कर आऊँगी।’ मेरे लिए! यानी हर एक को यक़ीन होना चाहिए कि यस, यह मेरी मोठी आई, यह मेरी दादी मेरे लिए इसी तरह दौड़कर आनेवाली है। उसने दिये हुए अभिवचन को हम यदि झूठ कहनेवाले हैं, तो फिर सब कुछ ख़त्म हो गया। उसे कोई अर्थ ही नहीं है। क्योंकि मैंने बार बार कहा है कि वह और उसका पुत्र एक बार अभिवचन देने पर कभी भी मुकरते नहीं। कभी नहीं। उसमें कभी भी बदलाव नहीं होता। फिर चाहे कितने भी जन्म हो जायें, प्रलय हो जायें या महाप्रलय हो जायें। आ गयी बात समझ में? उसके बाद देखिए कि परमात्मा क्या कह रहे हैं-

 ‘‘हे श्रद्धावान! मैं तो आदिमाता के द्वारा तुम्हारे जीवन में (मैं यानी कौन यह परमात्मा बता रहे हैं), हे श्रद्धावान! मैं तो आदिमाता के द्वारा तुम्हारे जीवन में सारी अच्छाइयाँ पहुँचाने के लिए तथा उन अच्छाइयों की रक्षा करने के लिए नियुक्त किया गया उनका दास हूँ। इसका अर्थ मह है कि आदिमाता के कृपारूपी कुएँ का मैं चण्डिकापुत्र केवल रहँट (कुएँ में से पानी निकालने का मन्त्र) हूँ, तुम्हारे ही उपयोग के लिए रहनेवाला। ङ्गिर देखो, तुम्हारे जीवन में अड़चन बिलकुल भी नहीं बचेगी। परन्तु इस रहँट का उपमोग करने के लिए तुम्हें प्रयास तो करना ही होगा।’’

और यह रहँट है यह हिलींग कोड, यह गुह्य सूक्त। आ गयी बात समझ में? यह जो रहँट आवश्यक होता है ना हमारे लिए, उस आदिमाता के कुएँ में से औषधियाँ बाहर निकालने के लिए, मदद बाहर निकालने के लिए, वह रहँट आज हमें पूरी तरह मिलनेवाला है, श्रीश्‍वासम् के उत्सव में। आ गयी बात समझ में? अब हमारे पास रहँट नहीं है, डोर नहीं है और बर्तन नहीं है ऐसा कहना मुनासिब नहीं है। और फिर यह स्तोत्र आता है, जो मेरा प्रिय स्तोत्र है।

चण्डिका प्रसाद स्तोत्र

यह प्रेमल आदिमाता केवल मेरी ही माँ है॥

यह आदिमाता ही मेरे सप्तचक्रों की स्वामिनी

और दो सुप्तचक्रों की प्रेरणास्रोत है॥

यह मेरी आदिमाता इतनी विलक्षण सुन्दर है

और इसीलिए मेरा जीवन भी बहुत सुन्दर है॥

यह मेरी आदिमाता कभी भी कोई भी भूल नहीं करती

और इसीलिए मेरा जीवन भी कभी भी व्यर्थ नहीं जामेगा॥

यह मेरी आदिमाता कभी भी विकृत होती नहीं,

और इसीलिए मेरा जीवन भी कभी भी विकृत नहीं होगा ॥

यह मेरी आदिमाता सदैव उत्साह से भरी रहती है,

और इसीलिए मेरा जीवन भी उत्साहपूर्ण ही है॥

मेरी इस आदिमाता की हर एक रचना निर्दोष है,

और उसने ही मेरी भी रचना की है॥

मेरी इस आदिमाता ने ही सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी को उचित वज़न दिया है,

और इसीलिए वह मेरे शरीर, मन, बुद्धि का

वज़न अर्थात् बोझ भी उचित ही रखती है॥

यह मेरी आदिमाता सदैव इतनी लचीली है,

और इसीलिए मैं कभी भी टूटूँगा नहीं॥

यह मेरी आदिमाता अन्तःकरण से इतनी कोमल है,

और इसीलिए मैं कभी भी पत्थर नहीं बनूँगा॥

मेरी इस आदिमाता को कोई भी शस्त्र क्षति नहीं पहुँचा सकता,

और इसीलिए मेरी वेदना कभी भी कायम नहीं रह सकती॥

यह मेरी आदिमाता कभी भी किसी का भी बुरा करना नहीं चाहती,

और इसीलिए कोई भी मेरा बुरा कर ही नहीं सकता॥

यह मेरी आदिमाता कभी भी पराजित नहीं होती,

और इसीलिए मेरा अपयश भी मुझे अधिक समृद्ध बनायेगा॥

यह मेरी आदिमाता इस विश्‍व की हर एक गलती को सुधारती रहती है,

और इसीलिए मेरे त्रिविध देह की विकृति को वही सुधारती है,

और मैं अविकृत रहता हूँ॥

मेरी इस प्यारी आदिमाता के हर एक उच्छ्वास से

अनगिनत अद्भुत चमत्कार बाहर निकलते रहते हैं,

और इसीलिए उसका नाम लेकर जो साँस मैं भीतर लेता हूँ,

उस साँस के साथ मेरे त्रिविध देह में अनेक अच्छे चमत्कार होते रहते हैं॥

 

हमने श्रीश्‍वासम् की तैयारी उपनिषद् में की थी, लेकिन हम भूल गये। है ना? स़िर्फ पढ़ते हैं। अरे, प्रेम से पढ़ना बच्चों, सच कहता हूँ, श्रीश्‍वासम् की तैयारी यहाँ है। तुम्हें- मुझे लगता है, अरे, बापु यह क्या कह रहे हैं? उपनिषद् तो है ही, लेकिन नहीं? है ना? ध्यान में रखना मित्रों, यह प्रॉमिस है, इस त्रिविक्रम का प्रॉमिस है, हनुमानजी का प्रॉमिस है, दत्तात्रेयजी का प्रॉमिस है, नित्यगुरु का प्रॉमिस है। पंद्रहवें अध्याय में देखिए, डिस्कशन चल रहा है, त्रिविक्रम, परशुराम और मध्यम।

मध्यम पूछता है, ‘‘हे त्रिविक्रम! क्या रोग, व्याधि यह सब अपराधों का दण्ड होता है?’’

त्रिविक्रम उवाच ः

‘‘हाँ, श्रद्धाहीनों के लिए यह सब अपराधों का दण्ड एवं सज़ा होती है,

वहीं, श्रद्धावानों के लिए मह चेतावनी होती है, स्वमं का जीवन सुधारने के लिए।’’

 हम इस बात पर ध्यान कब देंगे? जब बीमार पड़ जायेंगे तब.... क्यों? हमने इतना क्या बुरा किया है कि हमें यह सज़ा हुई? (अरे, वह सज़ा नहीं है।)

फिर परशुराम कहते हैं,

‘प्रिय मित्रों! शारीरिक व्याधियाँ ही नहीं, अपि तु मानसिक व्याधियाँ भी मनुष्य को विदीर्ण कर देती हैं।

व्याधि चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, बीमारी चाहे कोई भी क्यों न हो,

कोई फर्क नहीं पड़ता।

जब तुम पूर्ण रूप से अंबज्ञ रहकर आदिमाता चण्डिका की प्रार्थना करते हो, तब शत-प्रतिशत अद्भुत घटना घटित होती है।

हे मित्रों! आदिमाता चण्डिका कुछ भी कर सकती है।

 क्या ज़बरदस्त प्रॉमिस है परमात्मा से!

हे मित्रों! आदिमाता चण्डिका कुछ भी कर सकती है।

बीमारी ही क्या, अपि तु किसी भी संकट में कभी भी उनके कोई भी चमत्कार करने के सामर्थ्य पर संदेह मत करना।

हे मित्रों, तुम यदि उनसे और उनके कुल से प्रेम नहीं करोगे, तब कोई भी अन्य मनुष्य तुमसे कभी भी सच्चा प्रेम नहीं कर सकेगा।

और तुम उनपर विश्‍वास नहीं करोगे, तो कोई भी मनुष्य तुमपर विश्‍वास नहीं करेगा।

और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि यदि तुम उन्हें छोड़ दोगे, तो तुम्हारे जीवन की हर एक अच्छाई और अच्छा व्यक्ति तुम्हें अवश्य ही छोड़कर चला जायेगा। इस आदिमाता से जो कोई विमुख हो जाता है, उसका तो सद्भाग्य ही उसे छोड़कर चला जाता है।’

 कितनी आसान बात है ना!

दोस्तों, आदिमाता चण्डिका कुछ भी कर सकती है, यह ज्ञान हमें रहना चाहिए। और उसने कहा है इसलिए उसका पुत्र त्रिविक्रम उसके लिए कुछ भी कर सकता है। ये माँ-बेटे कुछ भी कर सकते हैं। मग़र ‘वह आदिमाता तो बहुत वत्सल है, अपने बच्चों के लिए वह बहुत दयालु है, बच्चे शरारती होते हैं, मग़र तब भी वह उनका ध्यान रखती है।’ हिलींग कोड देकर। सब लोग शारारती होने के बाद उसने कहा, ‘‘अब इस हिलींग कोड को आने दो।’’ आ गयी बात समझ में? शरारती हैं तब भी मेरे बच्चें हैं। ठीक? ज़्यादा से ज़्यादा थोड़ा सा कान खींचेगी, दो तमाचें लगाअयेगी, दो फटकें लगायेगी, दो घंटा भूखा रखेगी- एक के बदले तीन बजे खाने देगी। ठीक है? लेकिन उसका भला ही होना चाहिए।

बाईसवें अध्याय में त्रिविक्रम कहते हैं,

‘‘हे श्रद्धावानों! किसी का विश्‍वास हो या ना हो! परन्तु इस आदिमाता का हर एक चित्र, तसवीर एवं मूर्ति मूल आदिमाता के साथ संबंध जोड़नेवाली होती ही है। क्योंकि चण्डिकापुत्र परमात्मा ने ही सभी श्रद्धावानों के लिए ऐसा वरदान माँग रखा है।

कहीं भी देखो, ‘वे’ तो वे ही होती हैं।’’

 अब हमें यहाँ पर देखना है, ये इतने प्रॉमिसेस हमें मिले हैं। तो अब हमें एक बात देखनी है कि इसी उपनिषद् के 30वें अध्याय में त्रिविक्रम कहता है-

त्रिविक्रम उवाच  

‘‘हम चण्डिकापुत्रों से मेरी माँ जो प्रश्‍न पूछती है और पूछती रहती है; वही प्रश्‍न अब मैं तुमसे पूछ रहा हूँ।

‘मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ ऐसी तुम्हारी इच्छा है?’

अरे सुगति! तुम जब विगत थे, तब भी मैं तुम्हारा ही था।

हे उत्तम, मध्यम और सुगति! तुम्हारे लिए ही मेरी माँ ने मुझे बनामा है, तुम्हारी सेवा करने के लिए, तुम्हारी सहायता करने के लिए और तुम लोगों ने देखा ही है कि मैं तुम्हारे साथ ही चल रहा हूँ।’

मैं भी तुम्हारे साथ ही चल रहा हूँ।

और इसीलिए कहता हूँ मेरे बच्चोंं, इस बात का ध्यान रहे कि आदिमाता ने हमसे यह वादा किया है। हनुमानजी का वादा हमने देखा हनुमान चलिसा में, ‘नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा। संकट ते हनुमान छुडावै। मन क्रम वचन ध्यान जो लावै।’ पर मन-क्रम-बचन ध्यान में आये कैसे? एक लाईन में तुम कैसे ला सकते हो। ‘द हिलींग कोड’। हमें कोई ध्यान लगाकर बैठने की ज़रूरत नहीं है। हिलींग कोड सुनना है और अपने श्‍वासोच्छवास को हमेशा की तरह नियमित रखना है। ना अधिक और ना ही कम। हमें कोई उस पर कॉन्सन्ट्रेट नहीं करना है। कुछ भी नहीं करना है। केवल उस गीत को प्रेमपूर्वक सुनना है। गीत है वह, परन्तु वह मंत्रमय है। उसमें होने वाला हर एक शब्द हमारे अंतर में आत्मसात होने वाला है। और यह जो वेद गीत है, यह वेद गीत जो है, यह हिलींग कोड जो है यह पहली बार संस्कृत, मराठी, हिंदी एवं अंग्रेजी इन चार भाषाओं में यह हिलींग कोड का गीत आयेगा, इसके पश्‍चात् अन्य भाषाओं में भी जल्द से जल्द लाने का प्रयत्न किया जायेगा। मग़र इसका अनुवाद अन्य सभी भाषाओं में करते समय, इसकी तारतम्यता का पूरा ध्यान रखना होगा। केवल मन एवं बुद्धि का उपयोग करके अथवा केवल इसलिए कि वह भाषा मुझे आती है इसीलिए नहीं किया जा सकता है। बल्कि इसके लिए मुझे उसके साथ बैठना होगा, जो कोई भी इसका अनुवाद करनेवाला होगा उसके साथ। समझ गये? तो इससे सर्वप्रथम यदि यह चार भाषाओं में आ जाता है तब भी अति उत्तम। क्लियर? अब उस दिन उत्सव के दिन यहाँ पर क्या होने वाला है? ठीक है? तब यहाँ पर इस स्थान पर, जहाँ पर हम सभी लोग इस समय बैठे हुए हैं, यहीं पर, इस स्टेज पर, हमारे लिए प्रथम पुरुषार्थधाम में जैसी रचना है, चण्डिका कुल की, उसी रचना की हूबहू तसवीर मान लो अथवा और कुछ कहो, इस प्रकार का कुछ तो यहाँ पर होने वाला है। और उसका पूजन हर दिन मध्यान्हबेला में मैं, नंदा एवं सुचित करने वाले हैं। और संध्याबेला में समीरदादा करने वाले हैं। समझ गए? और इस पूजन या चरणाममृत (तीर्थ) एवं प्रसाद ही हर एक भक्त को मिलने वाला है। इस बात को ध्यान में रखना है। समझ गए ना? इसके पश्‍चात् यहाँ पर इसे तीन हिस्सों में बाँटा गया है। पार्ट वन, पार्ट टू और पार्ट थ्री। अर्थात् इस मैदान में पार्ट वन, इस बीच वाले हॉल में पार्ट टू एवं इसके बाहर जहाँ पर गुरुपूर्णिमा के दिन हम प्रदक्षिणा करते हैं, वहाँ पर पार्ट थ्री। अब पार्ट वन में इस स्थान पर क्या होगा? तो इस स्थान पर अवधूत चिंतन आप लोगों को याद होगा कि दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं की तस्वीरें रखी गई थीं, उसी प्रकार यहाँ पर भी उसी प्रकार चौबीस तस्वीरें होंगी। परन्तु उनमें से एक दत्तात्रेय की होगी, अश्‍विनीकुमारों की होंगी और उनमें माँ के श्रीरूप की, इस माता चण्डिका के श्रीरूप की विभिन्न प्रतिमाएँ होंगी और वे भी एक विशिष्ट क्रमानुसार। समझ गए? इस प्रकार कि जिससे उस शक्ति का वहन होता है, वह शक्ति हम सहज ही प्राप्त कर सकेंगे, इस प्रकार से उन प्रतिमाओं को रखा जायेगा, उनकी हमें प्रदक्षिणा करनी है। समझ गए? और जब हम वह प्रदक्षिणा कर रहे होंगे।..... सर्वप्रथम निरंतर हर एक समूह को हम गुरुगीता सुनायेंगे हर ग्रुप को। इसके पश्‍चात् हर एक ग्रुप को श्रीमूलार्क गणेश मंत्र एक बार, इसके पश्‍चात् दत्तात्रेय स्तोत्र, इसके पश्‍चात् श्रीसूक्तम् जिसे हमने अभी-अभी सुना है, ङ्गिर हनुमान स्तोत्र, इसके पश्‍चात् अश्‍विनीकुमार स्तोत्र, इसके पश्‍चात् उषास्तोत्र और ङ्गिर त्रिविक्रम मंत्र। इस तरह सात प्रकार के मंत्रोच्चार के साथ हम प्रदक्षिणा करेंगे। यह प्रदक्षिणा सभी लोगों के लिए बिना मूल्य होगी। इसमें किसी को भी एक भी पैसा खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु इस प्रदक्षिणा के साथ जिन लोगों को पूजा अर्चना करनी होगी उन्हें पैसे देने होंगे। क्योंकि पूजन सामग्री मुफ्त में देना संस्था के लिए संभव नहीं है। परन्तु संपूर्ण क्रिया करने वाले व्यक्ति एवं जिसके पास पैसे नहीं हैं इसलिए वह पाँच सौ एक रूपये नहीं खर्च कर सकता है, ऐसे व्यक्ति की पूजन विधि में कोई ङ्गर्क नहीं पड़ेगा। उस व्यक्ति ने पैसे नहीं दिए इसीलिए उसे वह पूजा नहीं प्राप्त होगी ऐसा बिलकुल भी नहीं है। समझ गए? ठीक है? क्लियर? अर्थात् इस प्रदक्षिणा के लिए पाँच सौ एक रुपये देकर जो पूजा द्रव्य - सूप आदि होने वाले हैं। उस सूप में अनेक चीज़ें होंगी। समझ गए? प्रदक्षिणा के पश्‍चात् वे सभी चीज़ें वहीं पर एक जल कुंड की रचना की गई होगी, उसी जल कुंड में ले जाकर अर्पण करनी होंगी। अर्थात् सब कुछ पानी में विसर्जित हो जायेगा। अर्थात् उस सूप में जो कुछ भी होगा वह अपनी माँ को अर्पण करने के लिए, यह पूजन विधि यदि घर में दस लोग हैं तो उनमें से यदि कोई एक ही करता है, तब भी कोई हर्ज नहीं और यदि भी नहीं कर सकता है तब भी कोई बात नहीं। इसके पश्‍चात् अंदर जाकर गुह्य सूक्त का वेदगीत होने वाला है, वहाँ पर अंदर प्रवेश करने के पश्‍चात् सर्वप्रथम शांत मुद्रा में...... हनुमान जी की मूर्ति होगी, पंचमुखी हनुमानजी की सुंदर मूर्ति वहाँ पर इस तरङ्ग उनकी ओर सभी लोग हाथ जोड़कर देखेंगे...... देखते समय आँखें बंद रखनी हैं, खुली रखेंगे तो भी कोई बात नहीं। और तब तुम्हें यह गुह्य सूक्त सुनाया जायेगा। समझ गए? इसके सभी आवर्तन जितना आवश्यक है वह सभी सुनाया जायेगा। उसे शांतचित्त होकर सुनना है। उसे सुनते समय तुम्हारी जो श्‍वासोच्छवास की क्रिया होगी उसी श्‍वासोच्छवास की क्रिया के साथ तुम्हारी नाल जुड़ती जायेगी, तुम्हारा कनेक्शन जुड़ने वाला है। और ङ्गिर हर किसी को जल से भरा हुआ एक कलश दिया जायेगा। वैसे वह जल तो सादा ही होगा परन्तु वह पवित्र मंत्रों से संतृप्त किया गया होगा। उस जल को लेकर हनुमानजी के सामने जाकर हनुमान जी को दिखाना है और ङ्गिर उसी के दूसरी छोर पर अश्‍विनीकुमार होंगे। अश्‍विनीकुमारों के पास भी जाकर वह जल दिखलाना है। कैसे? तो बायें हाथ में कलश को पकड़ना है एवं दाहिना हाथ उसके उपर रखना है और उसे लेकर हनुमानजी के सामने जाकर कहना है- ‘जय हनुमान’। वहाँ से अश्‍विनीकुमार के पास आकर कहना है- ‘जय अश्‍विनीकुमार’। सिम्पल! जय हनुमान, जय अश्‍विनीकुमार। मुझे किसी बड़े-बड़े मंत्रों की आवश्यकता नहीं है। अब उसे लेकर बाहर की ओर उषा पुष्करिणी होगी। उषा पुष्करिणी। उषस् ये वेदों की एक महान देवता हैं। अर्थात् सुबह के समय का जो उषःकाल होता है ना वही, परन्तु ये अश्‍विनीकुमारों की माता हैं। वहीं पर उस जल को हम अर्पण करने वाले हैं। और उससे ङ्गुव्वारा उठने वाला है। तुम्हारे द्वारा अर्पण किए जाने वाले जल से ही ङ्गुव्वारा उड़ने वाला है। और उसी ङ्गुव्वारे द्वारा ही त्रिविक्रम लिंग को अभिषेक होता रहेगा। समझ गए आप? अर्थात् तुम होग वह सब कुछ त्रिविक्रम को अर्पण करोगे। और पुष्करिणी तीर्थ किसका है? उषस् पुष्करिणी तीर्थ है। यह उषादेवी का है। ये अश्‍विनीकुमार कौन हैं? अश्‍विनीकुमारों की कथा तो हमने पढ़ी थी ना, उनका अश्‍वमुख था, वे दोनों जुड़वे भाई हैं। और वे देवताओं के वैद्य हैं। इन्हीं के कारण देवताओं को कभी कोई बीमारी नहीं होती है। अश्‍विनीकुमार अर्थात् क्या, यह हमें जानना ज़रूरी है। उषस् अर्थात् उषा देवी...........आदि अनेक नामों का उपयोग किया जाता है, परन्तु एक मूल नाम जो है हम उसी को लेते हैं। यह उषा जो है, वह सूर्य पत्नी है। सूर्य का तेज उसेे सहन नहीं होता था। वह विश्‍वकर्मा की कन्या थी। एक ही पौराणिक कथा में इसका उल्लेख किया गया है। परन्तु विश्‍वकर्मा जिसे हम कहते हैं, वे देवताओं के इंजिनियर थे। उन्ही विश्‍वकर्मा की कन्या थी ये उषा। उसके साथ विवाह सूर्य ने किया। उसके पिता से उसका हाथ माँगकर। परन्तु सूर्य का तेज इतना अधिक था कि उनके पास आते ही उनके तेज से उसके शरीर में जलन होने लगती थी और वह उनसे दूर चली जाती थी तब भी समस्या थी। यह भी ठीक नहीं था, पति तो है परन्तु उनका तेज़ ही वह सह नहीं पाती थी। इसी कारण उनके बीच वैवाहिक संबंध नहीं जुड पाया। एक दिन सूर्य के पास आने पर उसके बदन में जलन होने लगी और वह इतनी अधिक बढ़ गयी कि वह घबराकर भाग गई। यह कथा वेदों में रहने वाली कथा है। ॠग्वेद की कथा है। ध्यान रहे। वह भाग गई और वहाँ से भागकर एक तीर्थ स्थान पर चली गई। उस स्थल का नाम था पुष्करिणी तीर्थस्थान। वहीं पर जाकर वह छिप गई। यह देख उसके पिता ने सोचा कि अपनी बेटी यह ठीक नहीं कर रही है। उसे इतना श्रेष्ठ पति मिला है, उनका तेज उग्र है ही, परन्तु वे तो ऐसे हैं ही। उनके तेज़ को तो उसे सहन करना ही चाहिए। ऐसा पति मिलना बड़े भाग्य की बात है। विश्‍वकर्मा उसके साथ नीचे आते हैं और उससे कहते हैं, ‘‘बेटी, ऐसा मत करो। मैं तुम्हें महाप्राण का मंत्र देता हूँ। तुम उस महाप्राण के मंत्र का जप करो। ये महाप्राण कपिमुख से नहीं बल्कि पंचमुख से तुम्हारे सामने प्रकट होंगे। ये पंचमुख रूप में तुम्हारे समक्ष प्रकट होंगे।’’ और उसी प्रकार पंचमुखी हनुमान उसके समक्ष प्रकट होते हैं, उस मंत्र के जप के पश्‍चात्। और ङ्गिर वे अपने स्वयं के श्‍वास को सूर्य के श्‍वास में डाल देते हैं। अपने स्वयं के श्‍वास को सूर्य के श्‍वास में डाल देते हैं। साथ ही वे अपने स्वयं के उच्छ्वास को उषा के श्‍वास में डाल देते हैं। उषा की तेज सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है और सूर्य की उसके साथ वैवाहिक संबंध रखते समय की दाहकता सौम्य हो जाती है। अर्थात् सूर्य की जो कष्टदायक किरणें हैं वे एक तरङ्ग हो जाती हैं और जो हितकारक अर्थात् हिलींग करने वाली, निरोगीकरण करने वाली जो सूर्य की किरणें हैं, जो सूर्य की एनर्जी है वही और उषा की, उषा अर्थात विकसित होने वाली, प्रकाशित होने वाली, बल प्रदान करने वाली, जागृत करने वाली, ज्ञान देने वाली देवता हैं। इन दोनों का मिलन हुआ और इसी मिलन से जुड़वा पुत्र उत्पन्न हुए, अश्‍विनीकुमार। समझ गए? अश्‍विनीकुमार। यहाँ पर इनका कुछ स्थानों पर अश्‍वमुख माना जाता है। क्यों? क्योंकि उसने घबराकर घोड़ी का रूप धारण कर लिया था ताकि वे उसे पहचान न सके इसीलिए। और ङ्गिर विश्‍वकर्मा ने उन्हें पहचान लिया था। यह कथा है। इसके साथ, वैसे देखा जाये तो यह कथा सांकेतिक है, तुम्हारी समझ में यह बात आ गई कि सूर्य का जो कष्ट न पहॅुंचाने वाला हितकारक तेज है और उषा अर्थात् उस सूर्य की कष्ट न पहुँचाने वाली अत्यधिक हितकारक किरणें इनके सहयोग से जो चुंबकीय शक्ति उत्पन्न हुई वही है अश्‍विनीकुमार। इसीलिए उन्हें क्या कहा जाता है, ‘नासत्यौ’, अश्‍विनीकुमार। एक के अस्तित्व बगैर दूसरा हो ही नहीं सकता है। दोनों एक साथ ही रहते हैं। परन्तु उन दोनों का रंग भिन्न है। एक कैसा है? तो उदित होती हुई प्रात:संध्या के समान, वहीं, दूसरा संध्याबेला के समान अर्थात् सूर्यास्तकालीन संध्या के समान है। ये दोनों एक साथ ही रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ये दोनो पोल्स हैं चुंबकीय क्षेत्र के। साऊथ पोल एवं नॉर्थ पोल। एक है तो दूसरा है ही। एक के बगैर दूसरे का अस्तित्व ही नहीं। और यह जो सूर्य का प्रातः बेला का चुंबकीय क्षेत्र है उसे ही अश्‍विनीकुमार का समय कहते हैं। अर्थात् हमारे भारत देश के समयानुसार देखा जाय तो, सूर्योदय से पहले का आधा घंटा एवं सूर्योदय पश्‍चात् का आधा घंटा। सूर्योदय के पहले का आधा घंटा एवं सूर्योदय पश्‍चात् का आधा घंटा अर्थात् उषाकाल। ठीक है, ओके? और उसके पहले का पौने घंटे का समय अर्थात् अश्‍विनिकुमारों का समय। अश्‍विनीकुमार पहले हैंै यह ध्यान रहे। माँ बेटे हैं इसी लिए उलटा सीधा नहीं करना। समझ गए तुम? बिलकुल? सूर्योदय के पहले का आधा घंटा एवं उसके पश्‍चात् का आधा घंटा यह उषा काल है। और यह तुम्हारा विकास करने की शक्ति है वह अश्‍विनीकुमारों में है। वह समय कौनसा है? तो उसके पहले का आधा से पौने घंटे का समय। समझ गये? बिलकुल? कहने का तात्पर्य यह है कि माँ के होने के कारण माता के समय में भी अश्‍विनीकुमारों की शक्ति होती ही है। समझे? अर्थात् जो लोग कहते है बाप रे! बापू जल्दी उठना कैसे संभव होगा? तो ऐसा नहीं है। सूर्योदय पश्‍चात् के आधे घंटे में भी उषाकी शक्ति है और उसी के गर्भ में रहने वाले अश्‍विनी कुमारों की शक्ति भी है ही। और ये अश्‍विनी कुमार ही हमारे शरीर के चुंबकीय क्षेत्र मॅग्नेटीक ङ्गिल्ड हैं। तात्पर्य यह है कि हम मॅग्नेटीक थेरपी आदि सभी कुछ देखते हैं, आज हम जो एम.आर.आय. आदि करते हैं वह भी मॅग्नेटीक रेज़ोनन्स ही है। मॅग्नेटीक शक्ति ही ताकत हम देखते हैं। इलेक्ट्रोमॅग्नेटीक वेव्ज ही प्रकाश हैं। इलेक्ट्रोमॅग्नेटीक वेव्ज अर्थात प्रकाश। आज के समय में हमारे सभी उपकरण इनडायरेक्टली इलेक्ट्रोमॅग्नेटीक वेव्ज के आधार पर ही चल रहे हैं। इस बात को तो मानते हो? तो यह शक्ति हमारे शरीर में निर्माण करके उपयोग में लाने का काम अश्‍विनीकुमार एवं यह मॅग्नेटीक अर्थात् चुंबकीय क्षेत्र शत-प्रतिशत अल्टीमेट ट्रीटमेंट है। त्रिविक्रम करता है यह सब कुछ । हमारे शरीर का चुंबकीय क्षेत्र उन सप्त चक्रों की सहायता से जैसा चाहिए वैसा, अ‍ॅप्ट अर्थात् उचित बनाना। तात्पर्य यह है कि पूर्णतः उस रोग को नष्ट करना यह काम कौन करता है? त्रिविक्रम। वे उन दोनों अश्‍विनी कुमारों को त्रिविक्रम की नाक माना गया है। हमारे द्वारा नाक के जो नथूने (नासापुट) होते हैं उनमें एक ओर एक अश्‍विनी कुमार ओर दूसरी ओर दूसरा। नाक की दोनों बाजू जो नासापुट होते हैं, उन में से एक बाजू अर्थात् एक अश्‍विनी कुमार और दूसरी बाजू अर्थात् दूसरा अश्‍विनी कुमार। अश्‍विनी कुमार अर्थात् त्रिविक्रम की नाक और त्रिविक्रम को क्या माना गया है? आदिमाता का श्‍वास। त्रिविक्रम आदिमाता के श्‍वास हैं। समझें? क्लियर? और इसी लिए हमारे पास अश्‍विनीकुमारों की दो मूर्तियाँ होंगी। उसके ऊपर हम जल अर्पण करेंगे अथवा उन्हें भी हम जल दिखायेंगे। गलती से यदि हम अपना हाथ उलटा रखते हैं तो हमें पाप नहीं लगेगा। परन्तु योग्य तरीके से करने पर ङ्गायदा ज़रूर होगा। समझ गए? अंदर प्रवेश करने के लिए किसी भी प्रकार की फीस नहीं है। हिलींग कोड के लिए कुछ भी पैसा किसी को भी नहीं देना है। प्रदक्षिणा करते समय तुमने पैसे दिए हो अथवा नहीं ङ्गिर भी वहाँ पर जाने का अधिकार बिलकुल हर किसी को है। समझ गए? क्लियर? इसके प्रति मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह संपूर्ण रूप में जो महत्त्वपूर्ण बात है वह सभी के लिए सूर्यकिरण के समान ही बिना मूल्य है। अनकंडीशनल, केवल प्रेम और विश्‍वास की आवश्यकता है। आर यू अंडरस्टँडींग? परंतु मैं वहाँ पर दक्षिणा पेटी अवश्य ही रखूँगा, ताकि भाविक अपनी इच्छानुसार कुछ न कुछ जरूर अर्पण कर सकें, क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर सात-आठ दिन तक लगातार होनेवाले उत्सव में अत्यधिक खर्च होना स्वाभाविक ही है। अतिरिक्त पूजा विधि तो उत्तर भारतीय संघ हॉल में होने वाली है और वह ऐच्छिक है। वैसे वह पूजन सचमुच बहुत ही सुंदर है, उसके लिए बिलकुल उत्तम सूक्त, सबकुछ उत्तमोत्तम ही है। किंतु यह पूजा विधि अपनी क्षमतानुसार घर का कोई एक सदस्य भी कर सकता है। और यदि संभव न हो तो मैंने यह छूट भी दे रखी है कि एक साथ अगर पैसा नहीं भर सकते हो तो बाद में भी भर सकते हैं। तुम्हारा नाम यहाँ पर लिखकर नहीं रखा जाएगा। कि किसके नाम पर कितना बाकी है इस बात का हिसाब नहीं रखा जाएगा। इतने वर्षों से तुम लोग संस्था के इस नियम को तो जानते ही होंगे। किंतु यहाँ पर भी प्रदक्षिणा करने के लिए एक भी पैसे की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम पूजन द्रव्य अर्पण करना चाहते हो तो इसके लिए दक्षिणा देनी ही होगी। अंदर कुछ भी नहीं है। और जो हिलींग कोड है वह तुम्हें पूर्णतः, पूर्ण रूप में ही मिलने वाला है, परंतु जो लोग संग्रह के रूप में उसे अपने पास रखना चाहते हैं, उन्हें उसकी कॅसेट खरीदनी होगी। किंतु एक बात का विशेष ध्यान रहें कृपया वहाँ पर कोई भी मोबाईल लेकर उसे रिकार्ड करने की कोशिश न करे। समझे? वहाँ पर तुम्हारा रेकॉर्डर कोई निकालेगा नही किंतु तुम वहाँ के मॅग्नेटीक ङ्गिल्ड को दूषित मत करना। कल यदि तुम्हारे किसी एक मित्र ने सीडी खरीदी और दूसरे लोगों ने उसकी कॉपी कर ली तो इस पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं कोई पैसा कमाने के लिए नहीं बैठा हूँ अथवा संस्था को भी कोई एतराज नहीं है। किंतु वहाँ पर व्यर्थ में कुछ गड़बड घोटाला मत करना। वह उस वातावरण को वहीं उसी तरह चार्ज रहने देना। वहाँ के वातावरण को दूषित मत करना, उसी तरह सुंदर रहने देना, समझ गए? और ङ्गिर जाकर पुष्करणी में उसे अर्पण करना है। वहाँ अर्पण करते समय उस जल की बूँदे तुम्हारे ऊपर भी उड़ने वाली ही हैं। इसके पश्‍चात् तुम्हें तीर्थप्रसाद अवश्य मिलेगा। तुम एक दिन आ सकते हो, दोन दिन आ सकते हो, रोज भी आ सकते हो। सुबह-शाम भी जरूर आ सकते हो किंतु लाईन लगाकर ही आना है। समझ गए? यह सब कुछ सबको प्रेम पूर्वक करना है। यह सभी के लिए व्यवस्थित रूप से करने का सुवर्ण अवसर है। यह दिल खोलकर मुक्त रूप से करने का अवसर है। एक महापूजन को छोड़कर बाकी सबकुछ पूर्ण रूप से एक अनोखी संकल्पना है। श्रीश्‍वासम् के लिए कोई भी यह न सोचे कि मेरे पास पैसे नहीं है इसलिए मुझे श्रीश्‍वासम् नहीं मिलेगा। ऐसा कभी हो ही नहीं सकता है, समझ गए? क्लियर?

हाँ! तो मुंबई की काल-गणनानुसार, आजकल के अच्छे अभ्यासकों के अनुसार सुबह 5 से 7 का समय होता है, उसमें अश्‍विनीकुमारों का स्पंदन हमें मिल सकता है। 5 से 7 के बीच समझे? सातारण तौर पर 5 से 7।

अब यहाँ पर यह महत्त्वपूर्ण बात है कि स्वस्तिक यह जो चिह्न है, यह चिह्न ही हमें यह दर्शाता है कि इसके ये जो चार हस्त हैं, ये जो चार हस्त माने गए हैं वे अनन्त हैं। इन्हें हम जितना चाहे बढ़ाते जा सकते हैं। एक दूसरे को छेड़े बिना। यह स्वस्तिक ही हिलींग कोड़ का प्रतिक है। स्वस्तिक माने क्या? हमें अल्गोरिदम के बारे में जानकारी तो है ही। और उन सभी अल्गोरिदम के आधार पर ही यह हिलींग कोड बना है। ये चिह्न हैं । तो स्वस्तिक यह किस बात का प्रतीक है? तो यह हिलींग पॉवर का प्रतीक है। अर्थात् निरोगीकरण शक्ति का, आरोग्यदायिनी शक्ति का एवं आपत्तिनिवारक शक्ति का यह प्रतिक है और इसके ये जो चार हस्त हैं वे-आहार, विहार, आचार, विचार। ये आहार, निद्रा, भय, मैथुन इन चारों बातों पर प्रभाव डालते हैं। और इसीलिए सभी भारतीयों द्वारा प्रेम एवं सम्मानपूर्वक माना जानेवाला मंत्र है उसे ही, हम स्वस्तिमंत्र कहते हैं। और वेदों में उसका दूसरा नाम है, ख-स्वस्तिक है। ख-स्वस्तिक अर्थात् कोैन सा ‘ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्‍ववेदाः। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ समझ गए? यह जो स्वस्ति मंत्र हम अनेक जगह सुनते हैं, इसी को ख-स्वस्तिक कहते हैं।

ख-अर्थात आकाश। खग अर्थात पक्षी। खे गच्छति इति खग:। अर्थात जो आकाश (आसमान) में उड़ान भरता है वह पक्षी है। और उसी के अनुसार आसमान में भ्रमण करनेवाले को ‘ख’ अर्थात आकाश (आसमान) में भ्रमण करने वाला सूर्य भी है। और वे भी खग ही हैं - समझे? तो यह स्वस्तिक, यह ‘खग’ अर्थात जिसे सूर्य का प्रतीक माना जाता है। यहाँ पर इन्द्र भी सूर्य ही हैं। इसमें जो इन्द्र है, उसमें इन्द्र के जो चारों नाम हैं, वे ही इस मूलाधार चक्र की चारों पखुंड़ियों पर कार्य करनेवाली शक्तियाँ हैं। अर्थात जो स्वस्तिक चिन्ह है वह शुभचिन्ह है। तो यही सभी प्रकार के स्वास्थ का प्रतिकात्मक चिन्ह है, समझे? ठीक से समझ में आ गया? सचमुच यह स्वस्तिक चिन्ह अति सुंदर हैं। इसके पश्‍चात् अब हम त्रिविक्रम का दूसरा श्‍लोक लेने वाले हैं। पिछली बार ‘रामराज्य’ के समय मैंने उसके बारे में बताया था। क्या किसी को याद है।

‘ॐ त्रातारं इन्द्रं अवितारं इन्द्रं हवे हवे सुहवं शूरं इन्द्रम्।

ह्वयामि शक्रं पुरुहूतं इन्द्रं स्वस्ति न: मघवा धातु इन्द्र:॥

       ‘त्रातारं इन्द्रं, अवितारं इन्द्रं ।’ त्रातारं इन्द्रं अर्थात् एक बार जो रोग होता है, उसमें से जो तारण करता है, उसे बचाता है। संकट आने पर बचाता है वह ‘त्रातारं इन्द्र’ है। ‘अवितारं इन्द्रं’ अर्थात् संकट आने से पहले ही जो बचाता है। रोग आते ही उसकी रोकथाम वहीं पर कर देता हैं वह ‘अवितारं इन्द्रं’ है।

‘ॐ त्रातारं इन्द्रं, अवितारं इन्द्रं हवे हवे सुहवं शूरं इन्द्रम्। ह्वयामि शक्रं पुरुहूतं इन्द्रं स्वस्ति न मघवा धातु इन्द्र:॥ यह मंत्र स्नान करते समय बोलने वाला मंत्र था, बहुतों ने आठ दिन बोला और ङ्गिर छोड़ दिया, भूल गए। कौन-कौन यह मंत्र हर रोज कौन बोलता है? अहाहा! (बापू ने ताली बजाई) मैंने ताली बजाई अत्यधिक प्रेम पूर्वक! क्योंकि मुझे बहुत अच्छा लगा। इसलिए कि मैंने जो सोचा वह गलत निकला। मेरी बात गलत होने के बावजूद भी मुझे खुशी हुई। यस! बहुत अच्छा! अरे, निश्‍चित ही एक पिता को इस बात का आनंद तो होगा ही। निश्‍चित ही एक पिता को इस बात का आनंद तो होगा ही। निश्‍चित ही होगा। आय एम सो हॅप्पी। इस मंत्र को बोलते रहो, बच्चों, इस मंत्र में बहुत बड़ी ताकत है। आज लाखों वर्ष..... आज लाखों वर्षों से हम इतिहास में देखते आ रहे हैं। प्रत्यक्ष रूप से यह मंत्र लाखों वर्ष पुराना है। यह मंत्र बहुत ही पवित्र है, जिसे हमें नहाते समय अपने जीवन में उतारना है। अब मैं तुम्हें त्रिविक्रम के नाम बताता हूँ। यदि तुम चाहो तो लिख लो! त्रिविक्रम को किन-किन नामों से जाना जाता है? तो जातवेद:। जातवेद: यह एक नाम है, जिसे हमने पहले श्रीसूक्त में सुना होगा। ‘जातवेदो म आवह’। ठीक है - जातवेद:। जातवेद यह एक नाम है। दूसरी नाम है - समाग्नि। शरीर में रहनेवाली अग्नि का सम होना अर्थात अधिक भी नहीं और कम भी नहीं अर्थात् समान होना। यह स्थिति आरोग्य स्थिति है। इसीलिए इसका नाम समाग्नि है। इसका तीसरा नाम है - मित्राग्नि! अर्थात् ऐसी अग्नि जो मैत्रीपूर्ण है। जिस में दाहकता नहीं होती और जो हमें कष्ट भी नहीं पहुँचाती। और चौथा नाम है - श्रीशब्द। श्रीशब्द अर्थात् माता का शब्द, आदिमाता का शब्द। उसके बाद - अंबज्ञ यह भी त्रिविक्रम का ही नाम है। अंबज्ञ अर्थात त्रिविक्रम। उसके बाद - क्षमेन्द्र - त्रिविक्रम जैसा कोई भी नहीं मिलेगा इसीलिए उसे ‘क्षमेन्द्र’ यह माँ का दिया हुआ नाम है। और सातवां नाम है - श्रीश्‍वासम्। और आठवाँ नाम है - इन्द्रनाथ। इन्द्र का नाथ जो है वह। ओ.के. तो ये त्रिविक्रम के आठ प्रमुख नाम माने गए हैं। ओ.के.।

अभी यहाँ जो हमने जो पहले दिखाई, वह हाथ की क्लीप दिखाओ। बच्चों, बिलकुल पहली, माँ के बाद की। अब हमें यहाँ पर जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि इन बातों पर ध्यान देना है, कि बापू ने हमें यह सब क्यों दिखाया? व्यर्थ में तो नहीं, हमारे हाथों में जबरदस्त पावर (शक्ति) है। हमारे सप्तचक्र एवं हमारी विभिन्न प्रकार की नाड़ियाँ इन में हमने केवल अपने हाथों के मुद्रा के बारे में ही सीखा.....आज मैं तुम्हें इसके बारे में और अधिक नहीं बताऊँगा, कापी करने की ज़रूरत नहीं हैं। पुस्तिका में तुम्हें यह सब कुछ तुम्हें मिल जाएगा, वह भी व्यवस्थित रूप में चित्र सहित बनाकर मिलेगा। यहाँ पर यदि तुम गलत चित्र बनाओगे तो कोई लाभ नहीं होगा, न ही नुकसान होगा। परन्तु हाथों की ये पाँच ऊँगलियाँ पंचमहाभूतों का प्रतीक होने के कारण उनकी विशिष्ट हलचल के कारण हमारे शरीर की इलेक्ट्रोमॅग्नेटिक चार्ज को उचित दिशा में प्रवाहित करना आसान होता है। समझे? इसीलिए इनमें से कौन सी मुद्रा का किस लिए उपयोग करना है, इन सब बातों के बारे में मैं पुस्तिका में विस्तारपूर्वक देने वाला हूँ। इन सारी बातों को बताना अभी संभव नहीं है किंतु इतना बताता हूँ यह अवधूत मुद्रा है समझे? इसे एक हाथ से करना है या दो हाथ से करना है इसे मैं बाद मे बताऊंगा। अवधूत शब्द यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है। हमने अवधूत चिंतन किया, प्रसन्नोत्सव किया और अब श्रीश्‍वासम् करनेवाले हैं। और हम हमेशा क्या कहते हैं, ‘अवधूतचिंतन श्रीगुरुदेवदत्त।’ तो यह अवधूत मुद्रा है, ध्यान रहे। नेक्स्ट्। यह ‘अंबा मुद्रा’ है। उस माँ की मुद्रा है ओ.के.। ये ऊंगलियों के टेढ़ी मेढ़ी हरकतें नहीं हैं, समझे। ये हमारे शरीर के शक्ति केन्द्र को व्यवस्थित रूप में जागृत करने वाले प्रकार (मुद्राएँ) हैं। और इसे तुम्हें सिखाने की भी व्यवस्था की जाएगी। कुछ शिक्षक तैयार किए जाएँगें जो तुम्हें यह सबकुछ सिखाएँगे केन्द्र पर आकर भी सिखाएँगें। दूर-दराज के गाँवों में होने वाले केन्द्रों पर भी इसके संबंध में सिखाया जाएगा। समझ गए? परन्तु यदि कोई ऐसे ही आकर कहें कि मैं आकर सिखाता हूँ, तो ऐसा नहीं होना चाहिए। समझ गए? प्लीज। तो यह हुई ‘अंबामुद्रा’। नेक्स्ट् - आंजनेयमुद्रा। दत्तात्रेय मुद्रा, अंबा मुद्रा, आंजनेय मुद्रा। बापू इस प्रकार से ऊंगलियों को घुमाने से क्या होता है? जब ये एकत्रित आती हैं, तब पता चलता है, समझ गए। और इसे कम से कम सात मिनिटों तक रखना होता है। अधिक से अधिक कितना समय, यह शास्त्र तुम्हें सिखाया जाएगा, चिन्ता मत करो। दूर-दूर से आने वाले लोग कहेंगे कि ‘बापू हम सब इतनी दूर से आज आए हैं। इस बात के लिए तुम लोग चिन्ता मत करो, तुम जिस गाँव से आए हो - उन सभी गाँवों में जाकर सिखाया जाएगा। बिलकुल उसी प्रकार, तुम सब निश्‍चिंत रहो। बिलकुल चिंता मत करो। समझे, समझे। क्योंकि एक महत्त्वपूर्ण बात है जो अकसर सुनने में आती है। ‘बापू तुम्हारे मुंबई के लोग।’ मुंबई के लोग जितने मेरे हैं, उतने ही रत्नागिरी के लोग मेरे हैं, कोल्हापूर के लोग भी उतने ही, उतने ही कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, एवं तामिलनाडू के लोग भी मेरे ही हैं। ओ.के. सिम्पल। इसके पश्‍चात् ‘आंजनेय मुद्रा’ अर्थात् हनुमंत मुद्रा, त्रिविक्रम मुद्रा, शिवलिंग मुद्रा। यहाँ पर शिवलिंग मुद्रा अपने आप ही तैयार हो जाती है, तुम्हारे अँगूठे के द्वारा। बाँए हाथ के अँगूठे में शिवलिंग बनता है। यह शिवलिंग मुद्रा भी काङ्गी महत्त्वपूर्ण है। इस शिवलिंग मुद्रा से क्या क्या परिवर्तन हो सकता है, यह सिखाते समय बताया जाएगा। वे प्रशिक्षक इस बात का पूरी तरह ध्यान रखेंगे कि सब लोग सही तरीके से कर सकें। तुम चिंता मत करो। इसके पश्‍चात है ‘रसमुद्रा’। ‘रसमुद्रा’ यह शरीर व मन को रसरसीत बनानेवाली मुद्रा है। ‘स्वस्तिमुद्रा’ इसे ‘अरुलामुद्रा’भी कहते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह (16) मुद्राएँ हैं। और ये सभी तुम्हें सिखाई जाएँगी। तुम कहोगे कि इन मुद्राओं और श्रीश्‍वासम् का संबंध क्या है? यदि देखा जाए तो सम्बन्ध है पर करना ही चाहिए ऐसा अनिवार्य भी नहीं है। ये मुद्राएँ हैं अर्थात क्या? तो हमारे हाथ में जो पंचतत्त्व हैं....... दूसरी तस्वीर दिखाओ....... इन पंचमहाभूतों से ही सभी वस्तुएँ बनी हुई हैंै। है ना? प्रत्येक शरीर, वस्तु, पृथ्वी, आकाश, ग्रह, तारे ये सभी किससे बने हैं? तो ये सभी पंचमहाभूतों से ही बने हुए हैं। उनके विभिन्न मिश्रणों से ही सृष्टि के सारे मूलघटक निर्मित हैं और उन मूल घटकों का स्थान हमारे इन पाँच ऊंगलियों में ही हैं। मनुष्य दाहिने हाथ से काम करनेवाला हो या बाएँ हाथ से काम करने वाला हो इससे कोई ङ्गर्क नहीं पड़ता। परंतु दोनों हाथों की विभिन्न मुद्राओं में जो अलग-अलग ऊँगलियाँ जिस मुद्रा में पास लायी जाती हैं उनके एकत्रित आने से पोजीशन में लाया जाता है, उससे संतुलन बनता है। बीमारी कब आती है? जब पंचमहाभूतों में कोई विकृति आती है तब, समझे-समझे, यह कैसे होगा? जब तुम हिलींग कोड सुनोगे। तब वहाँ शांति होनी चाहेइ। किंतु बस में बैठे-बैठे भी समझे? इसमें से यदि कोई भी मुद्रा तुमने सीख ली और कौन सी सीखनी है आदि के बारे में तुम्हें पता चल जाएगा। सारी मुद्राएँ यदि तुम सीख लेते हो तो और भी अच्छा है। वह मुद्रा करते हुए तुम यदि बस में भी बैठे हो शांत आँखें बंद करके तो उसका ङ्गायदा तुम्हें अवश्य होगा। बिलकुल कान में श्रीश्‍वासम् होगा तो अच्छा है, न हो तो भी अच्छा है किंतु बुरा नहीं होगा। नामस्मरण करते रहोगे तो अच्छा है, नामस्मरण नहीं करते तो भी अच्छा है। किंतु ये मुद्राएँ तुम्हारे जीवन को बदल सकती है। ये मुद्राएँ तुम्हारे ऊपर बाहर से आनेवाली बुरी शक्तियों और बुरे स्पंदनों को भी पछाड़ सकती हैं। समझ गए? तो शिवलिंग मुद्रा का, इतना प्रखर परिणाम बहुतों को मालूम था। पर आज के दौर में यदि लोगों को खुले आम यह सब बात बताते हैं, तो मेरे तावीज़ बेचने का, जादू एवं टोना भूत भगाने का प्रयोग यदि मैं करता हूँ, तो मेरा धंधा कैसे चलेगा? इसी लिए यह योग्य ज्ञान, सामान्य, गरीब लोगों तक, सीधे-साधे भोलेभाले लोगों तक नहीं पहुँच पाता है। परंतु यहाँ पर यह सब कुछ जो है वह सब माँ का है। एव्हरी थिंग इज बीलाँग टू हर। माँ की ही अमानत है, अर्थात उनके अपने सभी नाती-पोतों को ही मिलनेवाला है। समझ गए? बिलकुल। शांति से कहता हूँ, ये जो भी मुद्राएँ हैं - उन्हें सीखने में बहुत कुछ सौंदर्य भरा-पूरा है, बहुत पवित्रता है, बहुत कुछ अच्छी बातें भी हैं। हम सीधे-साधे लोग हैं। हमसे बहुत सी गलतियाँ होते रहती हैं, परंतु हमें उनमें से रास्ता निकालते हुए आगे बढ़ना है। रुकना नहीं हैं। अरे मैंने ऐसा किया, वैसा किया, ये हो गया, वो हो गया, ऐसा कुछ भी नहीं हैं। इससे बाहर निकलकर उस माँ का नाम लो, उसके पुत्र का नाम लो और आगे बढ़ते रहो। गड़े हुए मुर्दे उखाड़ने की जरूरत नहीं हैं(पिछली बातों को लेकर क्यों सिर पीटते हो)। इसका कोई उपयोग नहीं है। तुम्हारे भूतकाल को यदि बदलना है तो तुम्हारा यह त्रिविक्रम समर्थ है। तुम्हारे भूतकाल में जाकर उसे जो कुछ सुधार करना है वह कर देगा और तुम्हें इस बात का पता भी नहीं चलेगा। अरे, यह सुधार कैसे हुआ! यस, सुधार तो आया! इसी लिए हमें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि यह जो हिलींग कोड हमें मिला है, यह हिलींग कोड जो उस दिन प्रकट होनेवाला है, इसके पीछे 2011 से जो तपश्‍चर्या मैं कर रहा हूँ वह संपूर्ण तपश्‍चर्या, साथ ही अपना संपूर्ण जप, इसके साथ तुम से भी लोग जो यह पठन आदि करते हो, जिसका वह तुम्हे दस गुना ङ्गल देता है, इसके बावजूद भी वह तुम्हें ब्याज देने की इच्छा रखता है। जो उसने पहले ही एक तरङ्ग निकालकर रखा है। कहने का ताप्तर्य यह है कि उसका व्यवहार तुम्हारे साथ बिलकुल नकद (रोकड़ा) होता है, जो तुम्हें हर दिन एक गुना के बदले दस गुना वापस से ही देता है। तुम एक बार ‘रामरसायन’ श्रीगुरुक्षेत्रम् में बैठकर पढ़ते हो तो उसका दस गुना ङ्गल मिलता है । यह तो हम जानते ही हैं, परंतु बैठने का परिश्रम कौन करता है? रात भर जागरण कौन करता है? पर दिनभर हमारी स्थिति बिलकुल झिंगुर की तरह हो जाती है, हम दिनरात बैचेन रहते हैं। देअर इस बॅड दॅट इज नॉट करेक्ट, ठीक कहा ना? तो जो हमें दस गुना मिलता है, उसके अलावा जो वह एक्स्ट्रा अलग से निकालकर रखता है, उन सबको जमा करके उनमें से यह निर्माण किया गया हैं। और अखंड रूप से दिया जा रहा है, कारण बताऊँ, दरअसल समस्या यह है कि मैंने जो तुम्हें पाँच शब्द बताये थे, याद है क्या तुम्हें? मुझे मालूम है। मैंने हिन्दी प्रवचन में बताया था इसीलिए जो लोग वहाँ पर उपस्थित नहीं थे, उनसे माङ्गी चाहता हूँ। अरूला अर्थात ग्रेस, ‘माँ का अनुग्रह, माँ का अनमेरिटेड ङ्गेव्हर’। हमारी औकात न होते हुए भी माँ का हम पर किया जानेवाला अनुग्रह अर्थात अरूला। इरूल अर्थात डार्कनेस, अंधकार अथवा भय। मारूल अर्थात भ्रम अर्थात गलत बातों का भ्रम होना। मारूल अर्थात भ्रम। और थिरुला भी एक शक्ति है - अर्थात द पॉवर ऑङ्ग नथिंगनेस। दारूल का अर्थ है दारूल अर्थात् भगवान की निन्दा करना, उन्हें दोष देना, भगवान के अस्तित्व को नकारना, इसे दारूल कहते हैं। थिरूल अर्थात पॉवर ऑङ्ग नथिंगनेसअर्थात् तुम्हारे पास कुछ भी न होते हुए भी, तुम्हारे पास पाप होते हुए भी, तुमने यदि कुछ भी नहीं किया है ङ्गिर भी र्थात उनका नाम लेने की भी तुम्हारी तैयारी न होने पर भी, इसी तरह नास्तिकों के लिए भी वह माँ जिस पॉवर को रिजर्व रखती है, उसी शक्ति को थिरूला कहते हैं। इन पाँच बातों को यदि हम अच्छी तरह से समझ लेते हैं तो हमें उस माँ की महानता का पता चल जाता है। सभी प्रकार की बीमारियाँ इन्हीं इरूल, मारूल एवं दारूल के कारण निर्माण होती हैं। और इसका जो उपाय है, वह है अरूला और थिरूला। हम श्रद्धावान हैं, हमें थिरूला का उपयोग करने की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए। हमारे लिए अरूला ही काङ्गी है। आर यू गेटिंग? बिलकुल? निश्‍चित? कितने प्रतिशत? 108%? तो भगवान का शब्द, आदिमाता का शब्द, आदिमाता का श्‍वास यही बेसिक उपचार है, इस बात को ध्यान में रखकर ही अन्य औषधि, उपचार आदि करना है, सर्जरी करनी है। सब कुछ करना है। समझ गए। किंतु चिंता नहीं करना है। सबकुछ ठीक हो सकता है, पर कब? जब हमारा दृढ़ विश्‍वास होता है कि भगवान कभी नहीं बदलता, किसी भी युग में और इसी लिए भगवान का दिया हुआ शब्द भी कभी नहीं बदलता। राम ने इतने वर्ष पूर्व वचन दिया था, दत्तात्रेय महाराज ने मरे हुए मनुष्य को जीवित किया था, इतने कालों के पश्‍चात् बीमारी से ग्रसित 19 वर्ष से बीमार पड़े मनुष्य को जीवित किया उस समय द्वापार युग में आज हम कलियुग में जी रहें हैं। अरे बाबा अभी साई बाबा को देह त्याग किये 100 वर्ष भी नहीं हुए हैं। 100 वर्ष पहले जो उन्होंने कहा था, उस पर तो विश्‍वास रखो।

‘माझा जो जाहला। काया वाचा मनी। तयाचा मी ऋणी सर्वकाळ।’

(मेरा जो हो गया काया, वाचा, मन से। उसका मैं ऋणी सर्वकाल।)

‘नवसास माझी पावेल समाधि। धरा दृढ़ बुद्धि माझ्या ठायी।’

(मन्नत पूरी करेगी मेरी समाधि। रखो दृढ़ बुद्धि मुझमें।)

ठीक है? इन वचनों को हमें याद करते रहना चाहिए। इससे हमें यह बात ठीक से ध्यान में रखनी चाहिए कि यह गुह्यसूक्त अर्थात हिलींग कोड है। यह गुप्त चाभी है, जो हमें मिल रही है, पर क्यों? क्योंकि बिकॉज ऑङ्ग हर ग्रेस, यह मेरी माँ का मेरे ऊपर होनेवाल अतुलनीय प्रेम की कृपा के कारण और इसका लाभ भी हमें मिलने वाला ही है। इसका लाभ भी हमें मिलनेवाला ही है। इसका लाभ हमें पूर्णरुप से उठाना है। समझे? कल उठकर यदि कोई कहता है कि इससे क्या हम अमर हो जाएँगें? मैं कभी किसी को गलत आश्‍वासन नहीं देता क्योंकि यह झूठ है। यह बिलकुल झूठापन है। देवताओं को भी जो 33 कोटि देवता हैं तुम कहते हो न उन्हें भी प्रलय आने पर डूबना ही पड़ता है। और उन्हें पुन: नवीन रुप धारण करना पड़ता है। एक बात ध्यान में रखो। उन्हें कितना भी दुख हो पर वे अपना दर्द नहीं दिखातें। डूबाने में उन्हें कोई खुशी नहीं मिलती यह बात ध्यान में रखो और इसीलिए यह हिलींग कोड बेसिकली शारिरिक रुप से, मानसिक रुप से, आर्थिक रुप से, जीवित रहने की दृष्टि से, कीर्ति की दृष्टि से, अनुभवों की दृष्टि, सुखसमृद्धि की दृष्टि से हमें सदैव आरोग्यसंपन्न रहना है। और इसीलिए भगवान भी आतुर हैं। वे त्रिविक्रम भी आतुर हैं, और उन सबके साथ हमारी आदिमाता जो हमारी सबसे बड़ी माँ है, वह भी सचमुच तैयार है। हर किसी को उसके पास जो कुछ है वह देने के लिए। ‘ऊतून चालला आहे खजिना, खारा माये चा पूत असावा।’ (खजाना भरकर बह रहा है, उसे लेकर जाने के लिए सच्चा माँ का लाल होना चाहिए) यह वाक्य साईबाबा ने स्पष्ट शब्दों में हमें कहा है, जिसे हमें ध्यान में रखना चाहिए। एण्ड व्हाय ही विल हिल मी? वे मुझे क्यों सुधारेंगे? वह माँ मुझे क्यों ठीक करेगी? क्योंकि उसकी यही इच्छा है। इसीलिए! इस बात का ध्यान रखना। किसी भी माँ की इच्छा यह नहीं रहती कि उसका बच्चा बीमार हो या रोग से छटपटाए। परंतु प्रारब्धानुसार जो कुछ भी भोग हमारी किस्मत में आता हैं, उसमें से ही मार्ग निकालने की कोशिश उस माँ की और उसके पुत्र की होती है, इस बात का ध्यान रखना। और इसीलिए श्रीस्वस्तिक्षेम संवाद है। उसी प्रकार यह जो हम करने जा रहे हैं, ‘वैश्‍विक निरोगीकरण गुह्यसूक्तम्’ अर्थात ‘स्वस्तिकविद्या’। तात्पर्य यह है ‘स्वस्तिकविद्या’। समझे? यह ‘स्वस्तिकविद्या’ बड़ी बड़ी गाथाओं से भरी न होकर यह प्रेम से लबालब भरी हुई है। माँ के आशिर्वाद से ओतप्रोत है। जिसकी तुलना किसी भी धन के साथ नहीं की जा सकती है। जिसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती है। जैसे - हरि अनंत हरि कथा अनंता, बिलकुल वैसे ही हमारी आदिमाता भी अनंत हैं और उनकी क्षमा भी अनंत हैं। वे क्यों क्षमा करना चाहती हैं? उस त्रिविक्रम का नाम क्षमेन्द्र क्यों हैं? क्योंकि क्षमा करने की उनकी इच्छा है इसीलिए। क्योंकि जब त्रिविक्रम ने मनुष्य को बनाया तब क्या उसे पता नहीं था कि मनुष्य से गलती हो सकती है? उसे कर्मस्वतन्त्रता देनेपर वह उसका गलत उपयोग भी कर सकता है। तुम अपने दो-तीन वर्ष के छोटे बच्चे के हाथ में अपना मोबाईल खेलने के लिए दे देते हो और वह गिरकर टूट जाता है, क्योंकि उसने अपने कर्मस्वातंत्र्य का उपयोग किया। उसने उसे गेंद की तरह ङ्गेंक दिया। तब क्या तुम अपने उस छोटे से बच्चे का गला दबा दोगे। नहीं, कभी नहीं, ठीक है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम जैसे सामान्य मनुष्यों को भी इस बात का पता होता है, तो वह तो हमारी बड़ी माँ है। उसके बच्चें को उस त्रिविक्रम को उस परमात्मा को क्या यह बात समझ में नहीं आती कि मैंने इन मनुष्यों को कर्मस्वातंत्र्य दिया है, तो उसके हाथों से उसका गलत उपयोग हो सकता है और वे गलती भी कर सकते हैं, पाप भी कर सकते हैं। और यही कारण है कि उन्होंने क्षमा दे रखी है। पर कब? क्षमा उसी समय मिलती है, जब हमारी गलती पकड़ी जाने पर बुरा लगता है तब नहीं, बल्कि जब हम गलती करते हैं उसी समय हमें बुरा लगता है। बस! इतना काङ्गी है। तब समझ लो कि क्षमा तुम्हें मिल गई। समझ गए? यह क्षमा सभी के लिए है। माँ के उपनिषद् में कहे गए उन शब्दों को ध्यान में रखना हैं। ‘मी तुमच्यासाठी ही अशीच धावत येईन’ (मैं तुम्हारे लिए भी इसी तरह दौड़कर आऊँगी)। ओ.के. और आज से एक निश्‍चय करना है। ताली तब बजाना जब मैं तुमसे कहूँगा। जब हम आनंदित होते हैं ना, तब हम क्या कहते हैं? वाह, वाह करते हैं, ठीक कह रहा हूँ या नहीं? येस, अच्छी बात है और नवीन पद्धतिनुसार जो करना है ज़रूर करो। परन्तु उसकी बजाय आज सभी लोग जोर से चिल्लायेंगे, आनंदपूर्वक, ‘जय जगदंब। जय दुर्गे।’ समझ गए। कभी भी जब हम आनंदित होंगे तो हमें क्या कहना है, अरे, बेटा प्रथम आया है.........‘जय जगदंब। जय दुर्गे।’ मॅच में मस्त सिक्सर लगाया.......‘जय जगदंब। जय दुर्गे।’ समझ गए। कुछ समझ में आ रहा है? पक्का। तो ङ्गिर आज से, जिस तरह हम ‘अंबज्ञ’ शब्द का उपयोग करने लगे हैं, उसी तरह हम ‘जय जगदंब। जय दुर्गे।’ कहेंगे, हमें अत्याधिक आनंद होता है तब वाह वाह जरूर करो। परन्तु उसके साथ ही ‘जय जगदंब। जय दुर्गे।’ भी कहो ना! क्या ङ्गर्क पड़ता है। स्टाईल चाहे कोई भी हो, व्हॉट इज द प्रॉब्लेम? मैं समय के साथ-साथ परिवर्तित होनेवाला मनुष्य हूँ। अब सभी लोगों को एक साथ मिलकर कहना है। मैं जब कहूँगा वन-टू-थ्री तब तुम सब को कहना है। वन-टू-थ्री- ‘जय जगदंब। जय दुर्गे। जय जगदंब। जय दुर्गे। जय जगदंब। जय दुर्गे।’ येस ओ.के. कभी पर्वत की कंदाराओं-घाटियों आदियों में जब तुम घुमने जाओगे ना, उस समय आकाश की ओर देखकर इस तरह ज़ोरदार पुकारकर देखोे, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए विचरण करो और ङ्गिर देखो कितना मजा आयेगा तुम्हें! सच कहता तुमसे, निसर्ग के रूप में अष्टधा प्रकृति वही है। वही वनस्पतियों के माध्यम से, पहाड़ियों के माध्यम से, आकाश के माध्यम से चारों ओर अपनी उर्जा तुम्हें भेजेगी और आज मुझे पूरा विश्‍वास है कि मेरा हर एक बच्चा यह बचेगा ही।

॥ हरि ॐ॥ श्रीराम॥ अंबज्ञ॥