‘जेएनयू’ के आदिवासी छात्रों की प्रतिक्रिया

‘जेएनयू’ में महिषासुर का समर्थन करनेवाले संगठन और उनके प्रतिनिधि ‘हम ग़रीबों का, पिछड़ीं जातियों-जनजातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं’ ऐसा दावा करते रहते हैं। लेकिन उसमें अंशमात्र भी सच्चाई नहीं है, यह स्पष्ट हो चुका है। ‘महिषासुर शहादत दिन’ के कार्यक्रम का पोस्टर देखकर ग़ुस्सा हुए ‘जेएनयू’ के आदिवासी छात्रों ने उसपर सख़्त ऐतराज़ जताया। आदिवासी छात्रों ने इस कार्यक्रम के विरोध में प्रकाशित किये पत्रक की शुरुआत ही -
 
‘जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते’
 
इस आदिमाता के स्तवन से की है। ‘हम दुर्गामाता के भक्त हैं। यही हमारा धर्म है और यही हमारी संस्कृति है। हम आदिवासी हैं और रणरागिणी दुर्गामाता की उपासना पीढ़ी-दरपीढ़ी करते आये हैं’ ऐसा कहकर इन आदिवासी छात्रों ने महिषासुर का उदात्तीकरण करने के प्रयासों की कड़े शब्दों में निर्भर्त्सना की। जिन्होंने इस कार्यक्रम का आयोजन किया, वे हमारे प्रतिनिधि नहीं हैं। अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए हम सक्षम हैं, ऐसा भी इन आदिवासी छात्रों ने ठणकाया था। इस पत्रक के अंत में, ‘जय माँ काली, जय गोरखाली’ ऐसा जयघोष लिखा गया था। अत:, ‘जेएनयू’ के कुछ लोग हालाँकि ‘हम सभी छात्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं’ ऐसा दावा करते हैं, मग़र फिर भी ‘जेएनयू ट्रायबल स्टुडंट्स फ़ोरम’ ने सन २०१४ के अक्तूबर महीने में प्रकाशित किया हुआ यह पत्रक बहुत सारी बातों को उजागर करनेवाला साबित हुआ है। चंद कुछ प्राध्यापक और उनका साथ देनेवाला प्रशासन आपस में मिलीभगत करके, यहाँ पर एक विशिष्ट विचारधारा का पुरस्कार कर रहे हैं। लेकिन विचारस्वतंत्रता, अभिव्यक्तीस्वतंत्रता इनका खुलेआम पुरस्कार करनेवाला यह वर्ग, उनके विचार न माननेवालों की अभिव्यक्तीस्वतंत्रता को नहीं मानता, ऐसा आरोप ‘जेएनयू’ के अन्य प्राध्यापक तथा छात्रवर्ग कर रहे हैं।