जराहरता

सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी ने २४ फरवरी २००५ के पितृवचनम् में ‘जराहरता (Jaraharata)’ इस बारे में बताया।

हम लोग सभी यह स्टोरी जानते हैं महाभारत की, जरासंध की, कि जरासंध जब पैदा हुआ तब ऋषिओं ने आकर कहा कि, ‘ये सारे मानवजाति के लिए बहुत खराब बात है।’ तो उसे, टुकड़े करके दो फेंक दिए थे। ‘जरा’ नाम की राक्षसी आकर उन्हें सांधती थी। तभी इसी लिए सांधने के बाद, बार बार टुकड़े करने के बाद भी उसे जरा आकर सांधती थी। तब उसके बाद, बढ़के चलके जरासंध सम्राट हो गया। जब भीम के साथ उसकी कुश्ती शुरू हो जाती है, तो भगवान कृष्ण वहाँ खड़े होते हैं चुपचाप, हमेशा के जैसे, कुछ नहीं करते। खड़े हैं सिर्फ।

जराहरता

जब समय आता है, उसके दो टुकड़े करके फेंक देता है भीम, तभी क्या होता है? फिरसे मिल जाते हैं। तब भगवान श्रीकृष्ण उसे, वहाँ वो एक तृण था, घास का छोटा सा टुकड़ा था, उसे उठाकर क्या करते हैं? तोड़ते हैं और अलग दिशा में फेंक देते हैं। तब भीम के, जाके उसके मन में यानी ये बिद्या, बुद्धी प्रकट होती है कि क्या करना है? वो भी जरासंध के दो टुकड़े करता है। राईटवाला टुकड़ा लेफ्ट में फेंक देता है, लेफ्टवाला टुकड़ा राईट में फेंक देता है, तो मिल नहीं सकते। यह भी हमारी जिंदगी की कहानी है भाई।

ये जराहरत्व ऐसे होना चाहिए हमारे पास। हम लोग क्या करते रहते हैं? जरात्व तोड़ने की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन फेंकते उलटा नहीं, उलटा नहीं फेंक देते हैं। उससे प्रॉब्लेम हो जाती है, यानी क्या? जराहरता यानी क्या हमारी जिंदगी की? ये आयु की बुढ़ापे की बात मैं नहीं कर रहा हूँ भाई। तो हमारे मन में, देखिए, जो भी भूतकाल हो जाता है, जैसे छोटा बच्चा रहता है, कोई खिलौना चाहिए, ‘माँ! मुझे खिलौना चाहिए, खिलौना चाहिए, खिलौना चाहिए’। खिलौना ला दिया, तीन दिन खेला, बाद में चौथे दिन जी भर गया, तो बस फेंक दिया। वह खिलौना बुढ़ा हो गया। नई-नई शादी हुई है, गाने गा रहे हैं, नाच रहे हैं, सबकुछ है। एक साल के बाद दूसरे का मुँह नहीं देखना चाहिए। यानी क्या? यानी किसी भी चीज़ का नूतनत्व हम लोग कायम नहीं रखते।

मेरे घर में जो भगवान की मूर्ति है, बचपन से देखते आए, उसे क्या हर रोज देखना है? तीर्थक्षेत्र की मूर्ति सबसे बड़ी है। हाँ, तीर्थक्षेत्र की महानता है ही, कोई प्रॉब्लेम ही नहीं उसमें। लेकिन मेरे घर की जो मूर्ति है, जो भगवान की तसबीर है, जो ग्रंथ है, ये मैं हर रोज देखने के कारण, कहते हैं - ‘अतिपरिचयात्‌ अवज्ञा।’ यानी ज्यादा जान-पहचान होने से अवज्ञा हो जाती है। यानी घर की मुर्गी है हर रोज, घर की मुर्गी दाल बराबर यानी जरा - जरत्व।

 

‘जराहरता’ इस बारे में हमारे सद्गुरु श्री अनिरुद्ध ने पितृवचनम्  में बताया ।

 

ll हरि: ॐ ll ll श्रीराम ll ll अंबज्ञ ll

॥ नाथसंविध् ॥